शनिवार, 11 जुलाई 2015

बालदीक्षा है संवैधानिक अधिकार



जुवेनाइल जस्टिस एक्ट की धाराओं को समझने के बाद हमें हमारे संवैधानिक अधिकारों के संबंध में भी समझना चाहिए। भारत के संविधान के अनुच्छेद-25 के अनुसार सभी नागरिकों को अपने धर्म की स्वतंत्रता का मूलभूत अधिकार है। अनुच्छेद-25 के प्रावधानों के अनुसार समस्त व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतंत्रता का और अपने धर्म को निर्बाध रूप से मानने का, आचरण करने का और धर्म का प्रचार-प्रसार करने का पूरा अधिकार प्राप्त होता है, बशर्ते कि ऐसा कार्य लोक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के बिन्दुओं के अधीन रहते हुए किया जाए। इस प्रकार यदि संविधान के अनुच्छेद-25 के प्रावधानों को दृष्टिगत रखते हुए देखा जाए तो प्रत्येक भारतीय नागरिक को अपने धर्म को सम्पादित करने का मूल अधिकार प्राप्त है। कोई भी व्यक्ति या विधि-कानून उसे मूल अधिकार से वंचित नहीं कर सकता है।

अब हमारे समक्ष सवाल यह उठता है कि धर्म क्या है? जैन ग्रंथों में धर्म को कई प्रकार से परिभाषित किया गया है, लेकिन भारत के संविधान में या अन्य किसी विधि-कानून में धर्म को स्पष्ट रूप से कहीं परिभाषित नहीं किया गया है। परन्तु, माननीय उच्च न्यायालयों व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायिक विनिश्चयों में धर्म को कई बार परिभाषित किया गया है। इसी के तहत माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने A.I.R. 1954 (S.C.) पृष्ठ सं. 282 कमिश्नर हिन्दू धर्म ट्रस्ट बनाम टी.एल.स्वामीयार के निर्णय में धर्म को परिभाषित करते हुए यह व्याख्या की है कि "धार्मिक स्वतंत्रता केवल सैद्धान्तिक विश्वास तक ही सीमित नहीं है। इसके तहत धर्म के अनुसरण में किया गया प्रत्येक कार्य भी शामिल होता है। इन कार्यों में कर्मकाण्ड, धार्मिक कार्य, संस्कृति, पूजा पद्धति भी शामिल होती है व ये सभी कार्य धर्म के ही अंग होते हैं..."

इस प्रकार यदि धर्म की परिभाषा व भारत के संविधान के अनुच्छेद-25 में वर्णित मूल अधिकार के प्रकाश में देखा जाए तो जिस दीक्षा पद्धति पर जस्मीन शाह द्वारा विवाद खडा किया जा रहा है, वह भी पूर्ण व विधिक रूप से जैन धर्मावलम्बियों की एक धर्म पद्धति है और यह पद्धति जैन धर्म का अभिन्न अंग है। ऐसी दशा में उक्त धर्म पद्धति यानी बालदीक्षा को मानने व इसका अनुसरण करने का प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी को मूल अधिकार प्राप्त है। यह मूल अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त होता है, चाहे वह वयस्क हो या अवयस्क। कोई यह नहीं कह सकता कि बच्चा क्या समझे, क्योंकि समझदारी का ठेका बडों का ही नहीं है। कई बार बच्चे भी बडी-बडी समस्याओं को सुलझा देते हैं जो बडे नहीं सुलझा सकते। अतः यदि कोई अवयस्क जैन धर्मावलम्बी अपने धर्म की परिपाटी के अनुसार दीक्षा लेता है तो ऐसा करना उसका मूलभूत अधिकार है और उसे किसी भी विधि-कानून के द्वारा ऐसा करने से नहीं रोका जा सकता है। ऐसी सुरक्षा-गारंटी उसे भारत का संविधान अनुच्छेद-25 के तहत प्रदान करता है।

माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय ने भी अपने न्यायिक विनिश्चय R.L.W. 1997 वोल्यूम-1, पृष्ठ सं. 421 श्रीमंत कुमार बनाम राजस्थान राज्य में यही सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि "अवयस्क की दीक्षा अनुचित व अधार्मिक नहीं है व ऐसी दीक्षा से लोक व्यवस्था, नैतिकता एवं स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं होता है। यह पूर्णतया संवैधानिक है।"

ऐसी स्थिति में बालदीक्षा को आपराधिक कृत्य कहना या क्रूरता कहना बौद्धिक दीवालियेपन की निशानी है। कोई धर्म का द्वेषी ही ऐसा कह सकता है। और किसी के धर्म के प्रति द्वेषात्मक कार्यवाही व संवैधानिक अधिकारों के हनन का प्रयास दंडनीय अपराध है।

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