सम्यग्दर्शन की अभिलाषा
ज्ञानियों ने सम्यक्त्व को
अतिशय महत्त्वपूर्ण माना है। परन्तु,
किसी भी समय सब जीव
ऐसे नहीं होते हैं, जिन्हें सम्यक्त्व की महिमा
समझ में आ जाए। यदि स्वयं श्री तीर्थंकर देव भी उपदेशदाता हों तो भी उपदेश सुनने
वालों में ऐसे भी जीव होते हैं कि जिन्हें सम्यक्त्व की महिमा समझ में नहीं आती।
जिन जीवों की समझ का सच्चा विकास हुआ हो या होने लगा हो, ऐसे जीव ही सामग्री को पाकर सम्यक्त्वादि की महत्ता को समझ
सकते हैं। प्रत्येक काल में ऐसे जीव अल्प संख्या में ही होते हैं। सम्यक्त्वादि
धर्म की बात सुनने का सौभाग्य भी जगत के जीवों में से बहुत कम को प्राप्त होता है।
यह बात यदि हमारे ध्यान में आ जाए तो हमें अनुभव होगा कि ‘हम अपने पुण्य के योग से बहुत ऊँचे आ गए हैं।’
हमें ऐसे देश में और ऐसे कुल
में जन्म मिल गया है कि जिससे हमें विशेष पुरुषार्थ किए बिना ही श्री जिनेश्वर देव
प्ररूपित सम्यक्त्वादि धर्म की बात सुनने को मिल जाती है। सम्यक्त्वादि धर्म की
सच्ची आवश्यकता जिन्हें लगती हो, वे सम्यक्त्वादि धर्म के लिए
प्राप्त हुए इस धर्म से अपने जीवन को निर्मल बनाने के लिए और प्राप्त धर्म के
रक्षण के लिए श्री जिनेश्वर देव द्वारा कथित तत्त्वभूत पदार्थों के स्वरूप का
अभ्यास करने लगें तभी यह अभ्यास सही रूप का कहा जा सकता है? जीवों को सम्यक्त्वादि धर्म की सच्ची आवश्यकता कब लगती है? जिन जीवों को सुख-सामग्री वाला संसार भी रुचिकर नहीं लगता, उन्हीं जीवों को सम्यक्त्वादि धर्म की सच्ची आवश्यकता
प्रतीत होती है। संसार में यदि रुचि बनी हुई हो तो संसार को छुडाने वाला धर्म कैसे
आवश्यक लग सकता है? जीव को जब ऐसा लगने लगे कि ‘इस संसार में चाहे जैसी सुखमय अवस्था इस जीव को प्राप्त हो
जाए तो भी उस अवस्था में जीव को एकांत सुख ही मिले, ऐसा नहीं होता। उसमें कुछ न कुछ दुःख का अंश होता ही है और वह सुख जीव के पास
सदा के लिए नहीं रह सकता है। या तो वह सुख चला जाता है, या उस सुख को छोडकर जीव को जाना पडता है। क्योंकि दोनों
पराधीन हैं। सुख पुण्य के आधीन है और जीव कर्म के आधीन है! ऐसी स्थिति में जीव को
इससे भिन्न अन्य प्रकार के सुख का और उस सुख के साधन रूप धर्म का विचार आने के लिए
अवकाश मिलता है। जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त करनी चाहिए कि जिस अवस्था में दुःख का
नाम भी न हो, सुख में कमी न हो और जीव की स्थिति शाश्वत रहे।
मोक्ष प्राप्त हुए बिना यह अवस्था प्राप्त नहीं होती।’ इसलिए जीव मोक्ष पाने के लिए धर्म के मार्ग की ओर मुडे। वह
धर्म को जानने के लिए प्रयत्न करे और ऐसे धर्म को जानने का प्रयास करे, जिसके योग से मोक्ष मिल सके। ऐसे जीव को जब सम्यक्त्वादि के
विषय में ज्ञान हो जाए, तो उसे सबसे पहले सम्यक्त्व
को पाने का मन होता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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