आप कौन हैं? शरीर या आत्मा?
आत्मा! और भोग सामग्री
की चाहे जितनी अच्छी चीज मिल जाए तो भी वह आपकी नहीं न? मंगल किसे कहते हैं?
जिससे विघ्नों का
विनाश हो उसका नाम मंगल। अतः शास्त्र में कहा है कि ‘आत्मा को संसार से जो तिरावे, वही सच्चा मंगल है! जिसमें संसार से तारने की शक्ति नहीं, वह वस्तुतः मंगल नहीं है। मंगल के रूप में संसार की अनेक
वस्तुएं जानी जाती हैं। परन्तु नियमतः मंगलकारी कोई वस्तु है तो वही हो सकती है, जिसमें आत्मा को संसार से तारने की शक्ति रही हुई हो! संसार
से तारने वाली वस्तु का भी यदि हम विपरीत रूप से उपयोग करें, तो वह हमारे लिए मंगलरूप नहीं बन सकती।
सम्यग्दृष्टि के लिए सारा
संसार मंगलरूप बन जाता है, ऐसा भी संभव है। क्योंकि, सम्यग्दृष्टि आत्मा संसार को भी अपने लिए तिरने में सहायक
बना देता है! सम्यग्दृष्टि आत्मा पुण्य के कारण राज्यादिक की ऋद्धि-सिद्धि को पाता
है, देवगति में अच्छे स्थान में देव बनता है, यावत सर्वार्थसिद्ध तक पहुंचता है। यह सब संभव है। अच्छे से
अच्छे पुण्य का स्वामी सम्यग्दृष्टि आत्मा ही बन सकता है। पुण्योदय दुनिया की
अच्छी से अच्छी सामग्री का योग मिला देता है,
इसमें कोई अचरज नहीं।
परन्तु, इन सबके बीच सम्यग्दृष्टि आत्मा कैसे रहता है, यह आप जानते हैं?
यह सब सामग्री उसे
संसार से तिरने में सहायक बने, इस तरह वह रहता है।
संसार की अच्छी सामग्री मिलना
पुण्याधीन है। पुण्यशालियों के लिए अच्छी चीजें मिलना कठिन नहीं है। परन्तु, संसार का कोई भी सुख बोधि की अनुपस्थिति में मिले, ऐसी इच्छा नहीं करनी चाहिए। संसार के सुख की सामग्री यदि
बोधि या बोधि पाने की इच्छा के अभाव में मिलती है, तो वह प्रायः आत्मा के हित को बिगाडने वाली बनती है। इसके विपरीत बोधि या बोधि
पाने की इच्छा की मौजूदगी में यह सामग्री मिल जाए तो वह आत्मा के हित को सुधारने
वाली बन जाती है। सम्यग्दृष्टि को लक्ष्मी मिलती है, तो वह बता सकता है कि उस लक्ष्मी की कोई कीमत नहीं! यह बात वह कैसे बताता है? उदारता से दान देकर।
संसार की कोई भी वस्तु उसे
लुभा नहीं सकती। वह उसके वैराग्य को बढाने वाली होती है। वे सब वस्तुएं तो कहती
हैं कि ‘हम में किसी को फंसना नहीं चाहिए।’ परन्तु, उसकी इस आवाज को सुनता कौन है? सम्यग्दृष्टि आत्मा उनकी इस आवाज को सुन सकता है। इसलिए वह
उनमें नहीं फंसता। परन्तु, अपनी मुक्ति की साधना में
उनका उपयोग करता है। अतः उसके लिए वे मंगलरूप बन सकती हैं। वस्तुतः संसार मंगलरूप
नहीं है, परन्तु जिसको उसका उपयोग करना आता हो, उसके लिए संसार भी मंगलरूप हो सकता है। इसी तरह अयोग्यों के
लिए तो शुद्ध मंगलरूप वस्तु भी अमंगल जैसी बन जाती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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