धर्म को जानने के लिए आए हुए
जीव को सद्गुरु क्या उपदेश दें? धर्म सुनने के लिए आए हुए
व्यक्ति का सांसारिक सुख का रस निकल जाए,
ऐसा ही सद्गुरु कहते
हैं न? धर्म को साररूप बताने के लिए सबसे पहले सुखमय संसार
को भी असार ही बताते हैं न? उस समय संसार के सुख पर से
जिसकी दृष्टि उठ गई है, वह जीव क्या कहेगा? वह कहेगा कि मुझे ऐसा ही महसूस हुआ है, अतः मैं धर्म सुनने के लिए आया हूं। ‘मोक्ष पाए बिना सच्चा और पूर्ण शाश्वत सुख नहीं मिल सकता’, ऐसा भी सद्गुरु उसे कहेंगे न? और ‘मोक्ष को पाने का उपाय धर्म है और वह धर्म भगवान
श्री जिनेश्वर देवों ने कहा है, धर्म का पूरा-पूरा आचरण करना
हो तो संसार का संग छोडना चाहिए’, ऐसा भी सद्गुरु कहेंगे न? उस समय असंख्य गुण निर्जरा करने वाले जीव को क्या विचार आता
है? सद्गुरु जो कहते हैं, वह सत्य है, यही न? वह स्वयं भले ही संसार में बैठा हो, संसार में बैठ कर दुनियादारी का व्यवहार भी करता हो, परन्तु उसे ऐसा विचार तो होता है कि ‘संसार के संग को छोडे बिना एकांत धर्म का सेवन हो ही नहीं
सकता’, ऐसी मनोदशा प्रकट होती है और उसमें अपूर्वकरण को
प्रकट होने में देर नहीं लगती।
यह सब बात हम क्यों कर रहे
हैं? आत्मा में ऐसा परिणाम न आया हो तो सुनते-सुनते और
विचारते-विचारते भी ऐसा परिणाम प्रकट हो जाए,
इसलिए न? अथवा, मोक्ष के उपायभूत धर्म को
जीवन में जीने का उल्लास प्रकटे-इसलिए न?
अतः प्रत्येक को यह
देखना चाहिए कि यह सुनते हुए उसके दिल पर क्या असर होता है? संसार में दुःख कितना और सुख कितना? संसार में जो थोडा-बहुत सुख है, वह भी दुःख मिश्रित ही है। संसार में दुःख का तो कोई पार ही
नहीं है।
आपने इस भव में भी बहुत-से
दुःखों का अनुभव किया है, ऐसा आपको प्रतीत होता है? माता के गर्भ में तो दुःख भोगा, परन्तु जन्म के बाद दुःख नहीं देखा और सुख ही भोगते-भोगते इतने
बडे हुए, ऐसा आप कह सकते हैं? जन्में तब से आप एक सरीखे सुख में ही रहे हैं, ऐसा कह सकते हैं क्या? प्रायः बचपन से ही आप दुःख का
अनुभव करते आए हैं। रोगादिक की बात को अलग रख दें तो भी आज आपको कम दुःख नहीं हैं।
कई दुःख ऐसे हैं जो शब्दों में व्यक्त नहीं किए जाते और कई दुःख हैं जो मोह के नशे
में दुःखरूप नहीं लगते हैं। ‘दुःख न सहे तो सुख कहां से
मिले’, ऐसा कहकर जो दुःख की परवाह नहीं करते, ऐसे भी बहुत हैं,
परन्तु इनको भी दुःख
मन में खटकता है न? ऐसा होते हुए भी संसार दुःखमय
है, यह बात गले नहीं उतरती है, तो इसका क्या कारण है?
जिस प्रकार से विचार
करना चाहिए, उस रीति से विचार नहीं किया जाता, यही उसका स्पष्ट कारण है न? गुरु यही विचार करने के लिए प्रेरित करते हैं।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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