जीव को सम्यग्दर्शन पाने की
इच्छा हो, इसमें बहुत सी सामग्री भी सहायक होती है। यदि हम
विचार करें तो हमें ऐसा लगता भी है कि हमें अपने पुण्य योग से ऐसी सामग्री मिल भी
गई है। अब तो मुख्यरूप से अपना पुरुषार्थ आवश्यक है। परन्तु, इस संसार में पुण्य से मिलने वाले सुख ऐसे हैं कि जीव जब तक
सच्ची दिशा में विचारशील नहीं होता,
तब तक उन सुखों पर राग
का जोर होता है, जो जीव की आँख को उन सुखों से
ऊपर उठने ही नहीं देता। जब तक इन सुखों पर ही जीव की आँख लगी की लगी रहती है, तब तक जीव की सच्ची दिशा की तरफ दृष्टि डालने का मन ही नहीं
होता।
अचरमावर्त काल में जीव मात्र
की दशा ऐसी ही होती है। अचरमावर्त काल में जीव की आँख संसार के सुखों से ऊपर उठे, ऐसा नहीं हो सकता। जीव जब चरमावर्त में आता है और उसमें भी
जब सम्यग्दर्शन गुण का विचार पैदा हो सकने की आवश्यक सामग्री मिले और इस सामग्री
के मिलने के बाद भी जीव जब स्वयं-स्फुरणादि से या सद्गुरु के उपदेशादि से विचार
करे, तब उसे सम्यग्दर्शन गुण का ज्ञान आए, यह संभव है। सद्गुरु का योग जितने जीवों को होता है और
जितने जीवों को सद्गुरु का उपदेश सुनने को मिलता है, उन सब जीवों का झुकाव सम्यग्दर्शन की प्राप्ति की तरफ हो, ऐसा भी नहीं होता। अभव्य और दुर्भव्य जीवों को भी सद्गुरु
का योग अनेक बार मिलता है, परन्तु उन्हें इस योग का जो
फल मिलना चाहिए, वह नहीं मिलता। भव्य जीवों
में भी सबको जब-जब यह योग मिलता है,
तब-तब वह फलता ही है, ऐसा भी नहीं होता।
भव्य जीवों को स्वयं विचार
करते-करते या सद्गुरु का उपदेश श्रवण करते-करते मन में ऐसा होने लगे कि ‘यह संसार चाहे जितना सुखमय भी मिले, वह मेरे लिए अच्छा नहीं है, शरणरूप नहीं है’, तो ऐसे जीवों की आँख संसार के
ऊपर से उठ सकती है और उनकी दृष्टि धर्म की तरफ मुड सकती है।
संसार कैसा है? दुःखी करे ऐसा या सुखी करे ऐसा? संसार में दुःख अधिक और सुख अल्प है, नाम मात्र का! परन्तु,
इस सुख का लालच जीव को
ऐसा लग गया है कि दुःखी जीव भी सुख की आशा में जीता है और सुखी जीव सुख में ऐसा
पागल बन जाता है कि आगे मेरा क्या होगा,
इसकी चिन्ता तब उसे
प्रायः नहीं होती। इस सुख पर से आँख उठे तो जीव को ऐसा लगता है कि ‘यह सुख मेरी मुक्ति का साधन नहीं है। यह सुख तो ऐसा है कि
जो इससे चिपकता है, उसे यह दुःखी किए बिना नहीं
रहता।’ जीव दुःख की स्थिति में हो तब भी उसे लगता है कि
मेरे सुख के लोभ ने ही मुझे इस स्थिति में पहुँचाया है। अब मुझे संसार-सुख की
इच्छा नहीं करनी है, अपितु मुक्ति का उपाय ढूँढना
है।’ -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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