सोमवार, 5 नवंबर 2012

दिल में संसार था इसलिए भटकना पडा


इतने समय तक हम संसार में भटके, यह किस कारण से? बाह्य दृष्टि से चार गतिरूप संसार भी कहा जाता है और अंतरदृष्टि से विषय-कषाय रूप संसार भी कहा जाता है। विषय-कषाय रूप संसार के प्रताप से चार गति रूप संसार में हम अनादिकाल से भटक रहे हैं। चार गति रूप संसार में भटकते-भटकते हमारा अनंतकाल बीत गया। इतने लम्बे समय तक चारगति रूप संसार में हम क्यों भटके? विषय-कषाय रूप संसार मौजूद होने से! विषय-कषाय रूप संसार मौजूद न होता तो इतने काल तक भटकना न पडता!

यह संसार दिल में कहां तक चिपका रह सकता है? जहां तक बोधि न आए वहां तक! जिसमें बोधि आ जाए, उसका दिल संसार में कदापि रंजित नहीं हो सकता। अतः दिल में से संसार को निकालना चाहिए। यह बात ज्ञानी कहते हैं या हम कहते हैं। लेकिन, ज्ञानियों की कही हुई यह बात हमारे हृदयों में बैठे और हमारी वाणी और व्यवहार में उतरे तो काम हो सकता है।

हमारा संसार अनादिकाल से चालू है, क्योंकि हमारे अंदर विषय-कषाय रूप संसार बैठा हुआ है। जहां तक बोधि प्राप्त न हो, वहां तक हृदय से संसार खिसकने वाला नहीं है और इसीलिए संसार में भटकना भी मिटने वाला नहीं है। संसार में सुख मिले भी तो वह क्वचित् स्वप्न जैसा और दुःख तो चालू है ही।ऐसा केवलज्ञानी ही कहें, ऐसा नहीं होना चाहिए; हम भी ऐसा कहें, ऐसा होना चाहिए। अब तक अनंतज्ञानी हो गए हैं और सबने यह बात कही है।

साधु भी बार-बार यही बात कहते हैं, फिर भी हम अब तक इस संसार में हैं, इसका कारण क्या है? ज्ञानियों द्वारा कही हुई बात जब तक हमारे दिल में पूरी दृढता के साथ जम न जाए, वहां तक हमारा संसार तो जैसा है वैसा ही बना रहने वाला है! यह बात यदि ठीक तरह से ध्यान में जम जाए तो बोधि की बहुमूल्यता का अनुभव हो सकता है। अर्थात् यह बात आपके हृदय से वाणीरूप में बाहर निकलनी चाहिए और यथाशक्ति व्यवहार में उतरनी चाहिए। यह शरीर मैंनहीं और यह शरीर या दुनिया का कोई पदार्थ मेरा नहीं’, यह बात जिसके दिल में जमकर बैठ गई हो, उसका मन संसार में रंजित कैसे हो सकता है? फिर उसको किसी से न राग होगा और न द्वेष। किसी प्रकार के विषय-कषाय फिर उसे प्रभावित नहीं कर सकेंगे। वह रिश्तों में बैठा होकर भी रिश्तों में, मेरे-तेरे में उलझा हुआ नहीं होगा। कोई आकर उसे कहे कि मैं आपका हूं’, तब वह मन में ऐसा समझता है कि बातों में तो ठीक है, व्यवहार को लेकर मेरा-तेरापन है, पर वास्तव में तो न मैं उसका और न वह मेरा है। ये सब सम्बंध कर्म के योग से ही पैदा होते हैं। वस्तुतः सम्बंध सच्चे हैं ही नहीं! ऐसा होते ही संसार पर विराम लग जाएगा।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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