गुरुवार, 22 नवंबर 2012

सुख-दुःख में शरणभूत धर्म ही है


सुख और दुःख में एकमात्र धर्म ही शरणभूत है। इसलिए धर्मी मानता है कि धर्म ही सर्वस्व है, धर्म ही भाई है, धर्म ही पिता है, धर्म ही माता है। भाई, पिता और माता आदि की गरज पूरी करने वाला धर्म ही है। अरे, संसार के भाई, माता, पिता आदि जो हमारी चिन्ता करते हैं, वह धर्म का ही प्रताप है। धर्म न रहे तो पिता, माता, भाई आदि में से कोई भी खबर लेने वाला नहीं रहेगा। धर्म पुण्य के रूप में उदित होगा तो ही सम्बंधी, सम्बंधी रहेंगे और मित्र, मित्र रहेंगे। लडका अंतिम समय तक आपको पिता कहेगा, चिन्ता करेगा, यह धर्म का ही प्रताप है। ऐसे धर्म को दुनिया की सामग्री के लिए या सगे-सम्बंधियों के लिए छोडना क्या उचित है? दुनिया की कोई सामग्री या कोई सगा-सम्बंधी जिस समय काम में नहीं आता, उस समय धर्म काम में आता है। यह साता भी दे सकता है और असाता के समय हृदय को यह समाधि में भी रख सकता है। अतः अवलंबन तो केवल मात्र धर्म का ही चाहिए न? धर्म की रुचि प्रकट हो और विवेक बढे तो समझ में आता है कि अपना धर्म ही हमें सब संग से छुडाकर असंगत्व का अनुपम सुख दिलाता है!

इसीलिए हम यह बात कर रहे हैं कि जब तक सुखमय संसार पर से जीव की दृष्टि ऊपर नहीं उठती, तब तक जीव का कोई ठिकाना नहीं पडता! दृष्टि ऊपर उठने का अर्थ क्या है? ‘यह सांसारिक सुख चाहे जितना मिले, चाहे जितने प्रमाण में मिले, परन्तु अन्त में जीव का कल्याण इससे नहीं होता। यह सुख सदा रहने वाला नहीं। या तो यह चला जाएगा, या मुझे इसे छोडकर जाना पडेगा। साथ ही इस सुख को प्राप्त करने में, भोगने में, रक्षण करने में जो-जो हिंसादि  पाप होते हैं, उनका फल इस जीव को भोगना ही पडता है। पाप का फल दुःख है, अर्थात् इस सुख के भोग में अपने आपको भूले, आत्मा को निर्मल बनाने के लिए संवर और निर्जरा का काम भूले, तो दुःखी होना निश्चित है। इस जन्म में यह भौतिक सुख और अगले जन्म में महादुःख, यह भी संभव है।जीव यदि ऐसा विचार करता है तो संसार के सुख से उसकी दृष्टि ऊपर उठती है और शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण आता है। इसके बिना शुद्ध यथाप्रवृत्तिकरण नहीं आता।

जीव को अनुभव से, विचार करते-करते ऐसा महसूस होना चाहिए, ‘इस सुख के पीछे हम चाहे जितने पडे रहें, इसमें जीव का स्थाई लाभ होने वाला नहीं है। इतना ही नहीं, इस सुख का रस भी जीव को नरक में गिरा सकता है और निगोद में भी पटक सकता है। इस सुख के रस बिना ऐसा पाप नहीं बंधता जो जीव को नरक और निगोद में पटक सके। इसलिए जो कोई जीव नरक में या निगोद में गए, जाते हैं और जाएंगे, उसमें प्रधान कारण सांसारिक सुख का रस ही है। इस तरह, संसार सुख पर से जीव की दृष्टि ऊपर उठती है, तब जीव आगे बढता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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