शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

साधुता को पाने की भावना होनी चाहिए


सम्यक्त्व पाने के मनोरथ में साधुता पाने का मनोरथ भी आ जाता है, वीतरागता का मनोरथ भी आ जाता है और मोक्ष पाने का मनोरथ भी आ जाता है। इसलिए यह निश्चय करिए कि धर्म की कोई भी क्रिया हम इसलिए करते हैं कि सबसे पहले हमें सम्यक्त्व मिले! धर्म के परिणाम स्वरूप हमें यह चाहिए, वह चाहिए’, यह भूल जाइए! पहले तो एक मात्र सम्यक्त्व ही चाहिए, ऐसा कहिए।

आजकल तो मंदिर में पूजादि हो और आमंत्रण आया हो तो पूजा में जाते हैं परन्तु कहते क्या हैं? ‘अमुक का आमंत्रण आया है, इसलिए पूजा में जाता हूं।इसमें क्या लाभ है? चक्कर भी होता है और फल भी नहीं मिलता। इस प्रकार धर्मक्रिया का फल न मिले या विपरीत फल मिले, इस रीति से कितनी ही धर्मक्रियाएं हो रही हैं। समझदार व्यक्ति ऐसी भूल कर सकता है? धर्मक्रिया करे और धर्म का फल जाए, इस तरह कोई विवेकी व्यक्ति धर्म कर सकता है? अतः धर्म के फल के रूप में किसी तरह की सांसारिक अभिलाषा नहीं रखनी चाहिए। धर्म प्राप्त करना है, इसलिए धर्म करता हूं’, ऐसा निश्चय कर लेना चाहिए! हमें दूसरे लोग अच्छा कहें, समझदार कहें’, यह सुनने की वृत्ति छोड दो।

सम्पूर्ण धर्म तो साधुपन में ही है। ऊंचा से ऊंचा धर्म भी साधु का ही है। सर्वविरतिधर धर्मी और देशविरतिधर धर्माधर्मी। पूर्ण धर्मी तो साधुता के बिना नहीं बना जा सकता। आपको भी पूर्ण धर्मी बनना है। परन्तु प्रारंभ में तो यह कहना चाहिए कि पहले सम्यक्त्व पाना है। इससे विघ्न भी कम आएंगे। आज कोई पूछे कि मंदिर क्यों जाते हो? साधु के पास क्यों जाते हो?’ और यदि आप ऐसा कहेंगे कि मन में ऐसी भावना है कि देव के पास जाते-जाते और गुरु के पास जाते-जाते संसार का संयोग छूट जाए और साधुपन प्राप्त हो जाए तो अच्छा।तो सगे-सम्बंधी कदाचित् आपको रोकने का प्रयत्न करेंगे। देव-गुरु के पास जाने में भी विघ्न करेंगे। धर्म करते समय मन में भावना यह रखनी चाहिए कि शक्ति आ जाए तो साधुपन लिए बिना नहीं रहना है’, परन्तु अभी कहना यह चाहिए कि सम्यक्त्व पाना है! सम्यक्त्व को निर्मल बनाना है।ऐसा बोलने से एकदम विघ्न नहीं आएगा।

वैसे, सम्यक्त्व पाने की सच्ची भावना में साधुपन को पाने की भावना अंतर्निहित होती है। संसार के संग को छोडने की भावना के बिना, संसार का संग त्याज्य ही है, ऐसा लगे बिना, सम्यक्त्व आता ही नहीं। इस भावना से विपरीत भावना आने से सम्यक्त्व टिक नहीं सकता।

इसलिए ऐसा कहिए कि अब तो प्रथम पुरुषार्थ अथवा कोई भी पुरुषार्थ सम्यक्त्व को पाने के लिए ही करना है। इसके लिए ही शास्त्र-श्रवण करना है और तत्त्व-स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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