गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

धन एवं भोग समस्त जगडे की जड



हमारी आत्मा के सबसे बडे शत्रु तीन हैं- मिथ्यात्व, अविरति एवं कषाय! इसमें तो किसी को दो मत नहीं हो सकते। आज दुनिया में जिधर देखो यही तीन शत्रु नजर आते हैं। इन तीनों शत्रुओं का समस्त नृत्य धन एवं भोग पर ही आधारित है। अतः कहना पडेगा कि संसार में इस धन एवं भोग की प्रतिष्ठा को खडी करने वाले ने विश्व को विनाश के कगार पर पहुंचा दिया है। विश्व में जिधर भी दृष्टिपात करें सभी इन दो वस्तुओं के पीछे ही भागते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। यही दो वस्तुएं समस्त जगडे की जड हैं।

गृहस्थ का काम धन के बिना नहीं चल सकता, यह मैं स्वीकार कर सकता हूं, परन्तु आपके पास जितना धन है, उतने धन के बिना आपका काम नहीं चल सकता, यह बात मानने के लिए मैं तैयार नहीं हूं। आपकी आवश्यकताएं कितनी होनी चाहिए? क्या इस पर आपने कभी सोचा है? आवश्यकता से अधिक धन प्राप्त करने की इच्छा हो जाए और हृदय पर उसका आघात लगे तो समझना चाहिए कि अनन्तानुबंधी का लोभ अस्वस्थ हो गया है। लोभ अस्वस्थ होने पर मैं पूछना चाहता हूं कि आपकी आवश्यकता का प्रमाण कितना है? पिघले हुए घी से चुपडी हुई रोटी और बिना फटे हुए वस्त्र की मात्रा शास्त्रों में बताई है। इससे अधिक सामग्री चाहने वालों के लिए शास्त्रों में उल्लेख है कि धर्मात् पतित। वह धर्म से भ्रष्ट होता है।

आत्मा के तीनों वास्तविक शत्रुओं को यदि आप अच्छी तरह पहचान लो और उनके गाजे-बाजे धन और भोग इन दो वस्तुओं पर चल रहे हैं; उनका वास्तविक स्वरूप पहचान लो, तत्पश्चात ही आप धर्म सही रूप में कर सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र

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