शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

काम-भोग से भी भयानक है अर्थ-लोलुपता



समरादित्य केवली चरित्र एवं उपमिति भव प्रपंचा कथा; इन दो महान ग्रंथों में चार प्रकार की कथा बताई गई है। अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा एवं संकीर्णकथा। इनमें कहा गया है कि कामकथा में आसक्त बनने वाले लोग राजस प्रकृति के तथा मध्यम स्तर के हैं। अर्थकथा में आसक्त बनने वाले लोग तामस प्रकृति के तथा अधम स्तर के हैं। क्योंकि, विषय-काम-भोग खराब हैं, यह समझना-समझाना सरल है; जबकि पैसा खराब है, यह समझना-समझाना कठिन है। दूसरे क्रम पर विषय-काम-भोगों की प्रवृत्ति कितनी भी की जाए, उसकी एक मर्यादा होती है। खा-खाकर भी कितना खा सकते हैं? अद्भुत दृश्य देखने को मिलें तो देख-देखकर भी कितना देखेंगे? गंधर्व संगीत सुनने को मिला तो सुन-सुनकर भी कितना सुनेंगे? सुन्दर स्त्री के साथ भोग भोगने को मिले तो भोग-भोगकर भी कितना भोगेंगे? इस प्रकार खाने, देखने, सुनने और भोगने की एक सीमा है। व्यक्ति अंततः इनसे भी थक जाता है। जबकि पैसों का नशा ऐसा होता है कि वह चौबीसों घंटे चढा रहता है। समाज में मान, प्रतिष्ठा, सत्ता एवं प्रशंसा चाहिए; इसके लिए खूब पैसा चाहिए और इसके लिए सबकुछ भूलकर पैसा-पैसा करने वाले लोग हैं कि नहीं? रुपयों के पीछे भागने वाले तो अपने परिवार को भी भूल जाते हैं, उसकी उपेक्षा करते हैं और परिवार मिलना भी चाहे तो भी उससे नहीं मिलते हैं। न अपनी पत्नी से मिलते हैं और न अपनी संतानों से मिलते हैं, इससे अनेक अनर्थ पैदा हो जाते हैं। फिर उनका मन दूसरी ओर आकर्षित होता है और वे सामान्य इंसानियत भी खो बैठते हैं। ऐसों को मानव मानना भी मूर्खता है। उनका राग दूसरे विकल्प को खोजता है। इस प्रकार वे उन्मार्ग पर चले जाते हैं। उनका जीवन अधोगति के मार्ग पर चला जाता है। उनकी धर्म करने की योग्यता समाप्त हो जाती है।-सूरिरामचन्द्र

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