गुरुवार, 8 अक्तूबर 2015

सुख के लिए धर्म ही शरणरूप


सुख के लिए धर्म ही शरणरूप

दुनिया का हर व्यक्ति केवल सुख ही चाहता है। दु:ख से सब दूर भागते हैं। यदि हमें सुखी रहना है तो सबसे पहले धर्म से जुडना होगा। किसी के मन को दुखाना भी पाप है। भागदौड भरी जिंदगी में आज हर व्यक्ति विवेक नहीं रख पाता है। इसलिए पाप बंध को बांधता चला जाता है और पाप बंधने के कारण सुखी नहीं हो पाता। इसलिए सुखी रहने के लिए धर्म की शरण में जाकर धर्म के मर्म को समझना होगा। धर्म की शुरुआत व्यक्ति को सबसे पहले अपने घर से ही करना चाहिए। यदि हम विवेकपूर्ण जीवन जिएंगे तो पाप से बच पाएंगे और जो पाप से बच पाएगा, वही सही मायनों में धर्म से भी जुड पाएगा। मर्यादाओं को भंग करना पाप की श्रेणी में आता है। इसी तरह किसी के मन को दुखाना भी पाप है।

हमें अपने जीवन काल में सुख प्राप्ति के लिए जिनवाणी को आचरण में उतारना होगा, क्योंकि जिनवाणी अमृत रूप है। हमारा सौभाग्य है कि हमें जिनवाणी श्रवण का सुअवसर मिला है। जीवन में यदि सुख प्राप्त करना है तो जिनवाणी के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं है। जिनाज्ञा रूप धर्म आधारित जीवन जीते हुए ही मनुष्य वैराग्य की ओर अग्रसर हो सकता है, अन्यथा तो संपूर्ण जीवन लोभ, मोह, मद, मान और माया में ही व्यतीत हो जाता है और प्रभु आराधना का समय ही नहीं मिल पाता और व्यक्ति संसार से प्रस्थान भी कर जाता है। संसार में रहते हुए वैराग्य के प्रसंग जीवन में आते हैं, फिर भी विरक्ति नहीं होती। इसलिए इसके लिए निरंतर साधना व स्वाध्याय करते रहना चाहिए। स्वाध्याय शास्त्रों का भी और स्वयं का भी। स्वयं का स्वाध्याय अंतरावलोकन, आत्म-चिंतन, आत्म-विश्लेषण और आत्मालोचन व प्रायश्चित्त से होता है।

सुखी और सफल जीवन के लिए भौतिक सुख नहीं, आध्यात्मिक सुख ज्यादा जरूरी है, जो वैराग्य से ही प्राप्त हो सकता है। संसार के सभी जीव सुख चाहते हैं। सभी लोग सुख प्राप्त करने के लिए ही पुरुषार्थ करते हैं, लेकिन सच्चा सुख कहां है, इसका हमें ध्यान नहीं है। जो जीवात्मा अरिहंत परमात्मा की वाणी को आत्मसात करती है, उसकी सभी प्रकार की आधि-व्याधि नष्ट हो जाती है। जिसने आत्मस्वरूप की पहचान कर ली है, वही धर्मध्यान में लीन होगा। इस प्रकार सुख के लिए धर्म ही शरणरूप है।

धर्म की शरण, धर्म-साधना हमें सरल मन बनाने में मदद करती है। साधना के द्वारा साधक पाता है कि उसका मन सरलता को अपनाने लगा है। धार्मिक व्यक्ति आत्महित और सर्वहित के लिए कुटिलता का त्याग करता है और उसके जीवन में सरलता, सहजता, अनुकम्पा, दया, क्षमा, ऋजुता आ जाती है। कुटिलता में महाअमंगल है, जबकि धार्मिक व्यक्ति के जीवन में अवतरित सरलता में महामंगल।-सूरिरामचन्द्र

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