क्रोध, मान, माया और लोभ;
ये राग और द्वेष के परिणाम हैं। राग और द्वेष
आर्तध्यान-रौद्रध्यान पैदा करते हैं। आर्तध्यान और रौद्रध्यान से जीवन भटक जाता है, जबकि
धर्मध्यान को अपनाकर ही व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में भी समभाव को धारण कर सकता
है। आज धर्मध्यान की जगह धन का ध्यान ज्यादा किया जा रहा है। पैसा साधन जरूर है, पर
वह साध्य नहीं है। विडंबना यह है कि आज व्यक्ति धन को ही साध्य मानने की भूल कर
रहा है।
वर्तमान युग में प्रायः हर मनुष्य धन इकट्ठा करने की दौड में शामिल हो गया है।
वह सिर्फ सांसारिक सुख खोजने में लगा है। भौतिक वस्तुएं एकत्रित करने में जुटा है।
हर मनुष्य यही सोचता है कि थोडा अच्छा धन इकट्ठा कर लूं। अपने व्यापार को आगे बढा लूं, फिर
मेरे पास सबकुछ होगा। लेकिन, कितना भी धन कमा ले, जिन्हें
सुख के साधन मानता है,
ऐसी कितनी भी सुख-सुविधाएं जुटा ले, फिर
भी मानव उनसे संतुष्ट नहीं होता, क्योंकि तृष्णा कभी जीर्ण नहीं होती, आदमी
बूढा हो जाता है,
लेकिन इच्छाएं बूढी नहीं होती, आकांक्षा
आगे बढती रहती है।
वह मानता है कि धर्म तो कभी भी किया जा सकता है, परमात्मा को तो कभी भी
प्राप्त किया जा सकता है,
आज मैं अपनी सारी दुनिया भर की जरूरतें पूरी कर लूं। फिर
धर्म भी कर लूंगा,
लेकिन वह इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं देना चाहता कि ऐसा
करते-करते ही एक दिन बूढा हो जाएगा, उसका शरीर, तन-मन
सबकुछ साथ छोडने लगेगा,
उसका शरीर झर्झर हो जाएगा। तब वह धर्म करने के लायक भी नहीं
रह पाएगा।
आज का मनुष्य धन जोडने के चक्कर में जिस धर्म को पाकर सब कुछ पाया जा सकता है, उसे
छोडता जा रहा है और जिस धन को पाकर इंसान सब कुछ खो देता है, उसको
इकट्ठा करने में लग गया है। लेकिन, पांच सूत्र हैं, जिन्हें
अपनाकर आप अपनी खुशियों को कायम रखते हुए धार्मिक संस्कार पा सकते हैं-
- जीवन में कभी भी खुद की खुशी के लिए माता-पिता को दुःखी न करें।
- कम से कम एक घंटा प्रतिदिन स्वाध्याय करें। रात्रि में सोने से पहले आत्म-चिंतन, आत्मालोचन और पापों का प्रायश्चित्त अवश्य करें।
- धन के पीछे न भागकर अपने परिवार व बच्चों के साथ ज्यादा से ज्यादा समय गुजारें और उन्हें धार्मिक संस्कार दें। उन्हें संतों के सान्निध्य में ले जाएं।
- ईश्वर की प्रार्थना नियमित करें। प्रार्थना करने से तनाव कम होता है। नकारात्मक विचार अपने आप दूर चले जाते हैं।
- देने में बहुत खुशी मिलती है। इसलिए देने की आदत डालें। धर्म क्षेत्र में शक्ति अनुसार अवश्य व्यय करें, गरीब, असहाय लोगों की सहायता करें।-सूरिरामचन्द्र
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