मिथ्यात्व के उदय से आत्मा दोष को दोष के रूप में नहीं देख सकती। ऐसे भी
व्यक्ति होते हैं कि स्वयं का एक सामान्य काम भी बिगड जाए तो उसमें सैकडों प्रकार
की गालियां दे दें। अमुक ने बिगाड किया, अमुक बीच में आया, अमुक
ने मदद न की। इस प्रकार अनेकों को दोष देता है। स्वयं का दोष नहीं देखता है। ऐसे
व्यक्ति को धर्म का निंदक बनते हुए भी देर नहीं लगती है। कहेंगे कि ‘धर्म
बहुत किया, पर अन्त में दशा तो यही हुई न?’ किन्तु, यह
विचार नहीं करता है कि ‘यह फल धर्म का है या पूर्व कृत पापों के उदय का?’ ऐसे व्यक्तियों को
धर्म रुचिकर नहीं लगता। धर्म करणी विधि-विधान के अनुसार करने की मनोवृत्ति ऐसों की
नहीं होती, यह भाग्य से ही होता है। धर्म-कर्म करते समय ऐसे व्यक्तियों के हृदय में पापमय
वासना हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। फिर भी यह कहेंगे कि ‘धर्म
बहुत किया, किन्तु फलदायी नहीं हुआ’। धर्म करणी भी धर्म का अपमान हो इस
प्रकार से करते हैं और फल अच्छा चाहते हैं, तो वह मिलेगा कहां से? इस
प्रकार के विचार तो उन्हीं को सूझते हैं, जिनमें स्वयं की कमी देखने की, सुनने
की योग्यता नहीं होती।-सूरिरामचन्द्र
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