संसार जिसको बुरा लगता है और मोक्ष जिसको अच्छा लगता है, वही
महात्मा कहा जाता है। उसके तीनों योग अवंचक होते हैं। उसको धर्म सामग्री ही अच्छी
लगती है, संसार सामग्री नहीं। वह न दूसरे को छलता है और न अपनी आत्मा को।
आपको धर्म सामग्री का योग तो मिल गया है, परन्तु उसकी कीमत आपने नहीं
समझी है। गृहस्थ के लिए हैसियत के अनुपात में धर्म सामग्री में जितना अधिक पैसा
खर्च हो, वह पहले नम्बर पर है। उससे ही धर्म की सामग्री रुचने का माप निकलता है।
श्रीमंत गृहस्थ पैसे बचाकर धर्म करना चाहता हो तो वह वास्तविक रूप में धर्म करता
ही नहीं है। योग की अवंचकता आते ही जीव का संसार-सामग्री के प्रति आकर्षण मिटकर, धर्म
सामग्री के प्रति आकर्षण पैदा हो जाता है। अब तक जीव का संसार-सामग्री के प्रति
आकर्षण था, उसमें जब बाधा पडती है,
तब उसे साधने के लिए ही उसे धर्म-सामग्री की आवश्यकता महसूस
होती है, अन्यथा नहीं;
परन्तु यह अवंचकता आते ही उसकी स्थिति बदल जाती है। संसार
की सामग्री पर राग होता है,
तब उसे अपना पापोदय लगता है? -सूरिरामचन्द्र
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