आज तो अधिकांश रूप से मात्र वर्तमान काल की और वह भी विवेकशून्य चिन्ता ने ही
मनुष्य के मन पर स्वामित्व स्थापित कर लिया है। प्रत्येक दार्शनिक ने स्वीकार किया
है कि ‘यदि भविष्य में सुखी होना हो तो वर्तमान के कष्टों की चिन्ता मत करो।’ सिर्फ
वर्तमान की दृष्टि का अनुसरण करने से सारे जीवन के सार का विवेक प्रकट नहीं हो
सकता। अच्छे-बुरे का भेद कर सके, ऐसी योग्यता भी प्राप्त हो जाए, तो
भी वह एकमात्र वर्तमान की दृष्टि के अनुसरण से स्वयं ही नष्ट हो जाती है। वर्तमान
में कुछ भी स्थिति हो,
परन्तु भविष्य में क्या? इसका पहले विचार करना चाहिए।
क्या भविष्य के लाभ के लिए व्यापारी अनेक कष्टों को नहीं उठाता? उसका
मन-वचन एवं काय अहर्निश किस चिंतन में रहता है? मनुष्य को जिस भविष्य का
विचार करना है,
उसे छोडकर यदि कोरे वर्तमान में ही चिपका रहे, तो
वह अपने कर्तव्य से च्युत हुए बिना नहीं रहेगा। इससे अनेक अनिष्ट स्वयं उत्पन्न हो
जाएंगे। अनंत शक्ति का स्वामी आत्मा, जिस प्रकार की चिंता, विकल्प
एवं अपार आधि-व्याधि-उपाधि के दुःख का अनुभव कर रहा है, उन्हें
नष्ट करने हेतु दीर्घ दृष्टा बनना पडेगा। भविष्य हेतु विचारक बनना पडेगा।-सूरिरामचन्द्र
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