धर्म के चार प्रकार बताए गए हैं : दान, शील, तप
और भाव! इन चारों को आप धर्म मानते हैं? यदि इन्हें आप धर्म मानते हैं, तो
धन, भोग, आहार और संसार की सब इच्छाओं को अधर्म मानना ही पडेगा। इन चारों में भी ‘भाव’ सबसे
प्रमुख है। भाव अर्थात् मन का पवित्र परिणाम! शालिभद्र ने ग्वाले के भव में जिस
भाव से दान दिया था,
उस ग्वाल-बाल जैसी भी आपकी मनोदशा नहीं है। जिसे किसी दूसरे
का लेने में आनंद आता है,
उसमें तो उस ग्वाले के लडके का नाम लेने की पात्रता भी नहीं
है। आपका दान हमें दान नहीं लगता। नहीं तो साधु को दूध बहोराने वाला, भगवान
के अभिषेक के लिए दूध क्यों नहीं भेजे? आपका दूध लेते समय तो हमें
घबराहट होती है। इस बहोराने के पीछे रहे हुए कारण को, भाव
को प्रकट करो तो मालूम हो कि आपका दान, दान है या नहीं? दान, शील
और तप ये तीनों भाव सहित होने चाहिए। भाव रहित होने पर ये तीनों निरर्थक हैं, इतना
ही नहीं, अपितु संसार बढाने वाले हैं। दान, शील और तप; चाहे देशविरति
संबंधी हों या सर्वविरति संबंधी, इनमें भाव के मिलने पर ही ये सफल होते
हैं। भाव के प्रभाव से ही ये धर्म, धर्म बन सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र
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