चिन्ता चिता समान है। चिता बाहर से सुलगाती है और चिन्ता अन्दर से सुलगाती है।
चिता में सुलगते हुए को सब देख सकते हैं और चिन्ता में सुलगते हुए को कोई-कोई
व्यक्ति ही देख पाता है। चिता जल्दी से सुलगाकर शरीर को राख कर देती है और चिन्ता
कई दिनों तक,
कई वर्षों तक जलाती, सताती रहती है। इस प्रकार
चिता से भी चिन्ता अत्यधिक भयंकर है। चिन्ता से घिरे हुए आदमी को कुछ भी खाना-पीना
अच्छा नहीं लगता है। चिन्तातुर आदमी को स्वजनों का मिलाप भी अच्छा नहीं लगता है।
बात-बात में गुस्सा आ जाता है, वह झुंझला उठता है, चिडचिडा
हो जाता है, ऐसा क्यों होता है?
एक मात्र चिन्ता से! जिस बात के कारण मन चिन्तातुर बना हो, उसके
विचार दिन-रात आया करते हैं। नींद उड जाती है। चिन्ता जिस प्रकार बल का नाश करती
है, उसी प्रकार निद्राहारिणी भी है।
ऐसी सांसारिक चिन्ता पतन की ओर ले जाती है, लेकिन यही चिन्ता आत्मा की हो
तो? आत्म-चिन्ता साधना का प्रबल साधन है। आत्मचिन्ता विवेकशून्य नहीं होनी चाहिए।
सांसारिक चिन्ता आदमी को पागल बना देती है, जबकि आत्मचिन्ता व्यक्ति को
धीर, वीर और गंभीर बनाती है। सचमुच जिस आत्मा में सच्ची आत्मचिन्ता प्रकट हुई हो, उस
आत्मा की विचारदशा ही बदल जाती है। आत्मचिन्ता उत्पन्न हो और उसमें त्वरा आए तो यह
चिन्ता विरति के मार्ग पर ले जाती है और इसी से आत्मा के उत्साह में वृद्धि होती
है। यही आत्मचिन्ता कर्मों को खपाती है, आत्मा को निर्मल बनाती है और
मोक्ष की ओर गति करती है।-सूरिरामचन्द्र
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