एक आठवीं पास चपरासी (स्थाईकर्मी) से कम वेतन है एक संविदा पर रखे गए कोलेज व्याख्याता
का। एक क्लीनर (सफाई कर्मी) से कम वेतन है एक डॉक्टर, जिला
कार्यक्रम अधिकारी, काउंसलर, नर्स
व लेब टेक्नीशियन का। बाजार में काम करनेवाले एक दिहाडी मजदूर से कम वेतन है डाटा ऑपरेटर
व अकाउन्टेंट का। कारण यह है कि एक स्थाई राजकीय कर्मचारी है और दूसरा संविदा पर, यानी सरकार की और अफसरों की मेहरबानी से ठेके पर काम करने वाला। स्त्री का जैसे
देवी कहकर दासी की तरह इस्तेमाल किया जाता है, वैसी ही हालत संविदाकर्मियों की है।
बेरोजगारी का सबसे ज्यादा लाभ कोई उठा रहा है तो वह है कल्याणकारी राज्य का दावा करने
वाली सरकारें। स्थाई कर्मचारियों की तुलना में संविदा पर रखे गए कर्मचारियों से चार
गुना अधिक काम लेकर चौथाई वेतन देना और इस बात का दावा करना कि इतने लोगों को रोजगार
दिया जा रहा है। शोषण की यह त्रासदी बहुत भयावह है। अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में
पढाना तो दूर का सपना है, संविदाकर्मी दो वक्त का भोजन भी
ठीक से न कर सकें इतनी ही उनकी तनख्वाह है।
सरकार
यानी नेता और अफसर...! इन्हें देश सेवा से कोई सरोकार नहीं, ये कैसे अपनी कुर्सी पर जमे रहें और कैसे अधिकतम
धन-सम्पत्ति बटोर सकें, इसी
उधेडबुन में ये लगे रहते हैं। सेवा निवृत्ति की आयु पहले 55 साल थी। कर्मचारी रिटायर होता, नौजवान को मौका मिलता। कर्मचारी चूंकि मरते दम तक
कुर्सी छोडना नहीं चाहता, इसलिए
चालाकी से उसने अपनी सेवा निवृत्ति की आयु बढवा ली। 55 से 58 और फिर 60 साल; अब वह 62 और
65 करवाने की जोडतोड में लगा है। इस बीच मर जाएंगे तो
बच्चे को अनुकम्पा नौकरी मिल जाएगी, कब्जा
बना रहेगा। अपनी वेतन वृद्धियां भी नेता और कर्मचारी आराम से करवा लेते हैं, क्योंकि मंहगाई सिर्फ उन्हीं को सताती है। हर छ: माह
में स्थाई कर्मचारियों का मंहगाई भत्ता बढाता है, किन्तु संविदाकर्मियों के लिए
कुछ नहीं.
नई
भर्तियां रोक दी गईं। कर्मचारी कुछ मर-खप गए तो कुछ को रिटायर होना ही पडा, लेकिन नेताओं और कर्मचारियों ने सरकार को इतना
दिवालिया कर दिया कि पद रिक्त होने के बावजूद जहां-जहां और जितना नई भर्तियों को
टाल सकती थी टालती रही। अब जब सरकारी काम और सरकार लडखडाने लगे तो इन्होंने शोषण
का नया फण्डा तैयार किया, जिसने
संविधान को टाक में रख दिया और दुष्टता की, निर्दयता की शोषण की सारी हदें लांघ दी है। पिछले 10-15 वर्षों में सरकार ने गैर सरकारी संगठनों के पेटर्न पर
संस्थाएं बनाकर काम शुरू किया। जैसे नाको, एड्स कंट्रोल सोसायटी, एनआरएचएम, आदि-आदि।
इसमें ऊपर के स्तर पर कुछ सरकारी अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर बैठ गए और नीचे के स्तर
पर संविदा के आधार पर मामूली वेतन पर कर्मचारी रखे जाते हैं। अफसर मजे कर रहे हैं, नेताओं को कमीशन देकर घोटाले भी कर रहे हैं, विदेश यात्राएं भी कर रहे हैं और उनकी वेतन वृद्धियां
तो रूटीन में हो ही रही हैं। नीचे संविदाकर्मियों की तरफ देखने की जरूरत ही नहीं, चां-चूं करेंगे तो नौकरी से निकाल देंगे। कैसी है यह
दुष्ट मनोवृत्ति?
क्या असंगठित व्यक्ति को मानवीय गरिमा से जीने का, अपनी
उदरपूर्ति का,
अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने का अधिकार नहीं है? सरकार इस प्रकार का भेदभाव कर क्या संदेश देना चाहती है?
हालत यह है कि इन अस्थाई कर्मचारियों के बीमा आदि के प्रावधान होते हुए भी सरकार
ने पिछले 15 वर्षों में एक भी संविदाकर्मी
का बीमा नहीं करवाया है, जबकि ये संविदाकर्मी एचआईवी, टीबी आदि के रोगियों के मध्य हाई रिस्क में भी काम करते हैं, कई संक्रमण के शिकार होकर या दुर्घटना के शिकार होकर मर भी गए, किन्तु उनकी फाइलें वहीं बंद हो गई। जनकल्याणकारी सरकार का यह असली चेहरा है।
क्या
सरकार ने असंगठित संविदाकर्मिर्यों के लिए भी कभी कुछ सोचा है? जिस योग्यता और काम के आधार पर सरकारी कर्मचारी को 40 हजार से एक लाख रुपये मासिक वेतन मिल रहा है, उसी योग्यता और काम के आधार पर एक संविदा कर्मी को 6,500 से 15,000 रुपये मासिक मिल रहा है। काम संविदाकर्मी ज्यादा करता
है और स्थाई कर्मचारी हरामी ज्यादा करता है। फिर भी वेतन वृद्धियां और मंहगाई
भत्ता स्थाई कर्मचारी का बढता है, संविदाकर्मी
रोता है। कैसा शोषण और विडम्बना है? स्थाई
कर्मचारी रिश्वत और घेटाले में भी लिप्त होता है, संविदाकर्मी के परिवार को दो वक्त का भोजन और उसके
बच्चे को अच्छे स्कूल में शिक्षण नसीब नहीं होता है। क्या यह संविधान और मानवीय
गरिमा के अनुरूप है? समान
काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त कहां है? क्या सरकार की यह नीति अराजकता को जन्म नहीं देगी?
जरा
हिसाब तो लगाएं कि 10-15 साल
पहले एक स्थाई कर्मचारी को कितना वेतन मिलता था और आज कितना मिलता है? वहीं एक संविदाकर्मी को उस समय कितना वेतन मिलता था
और आज कितना मिलता है? आप
चाहे उसे स्थाई न करो, जब
तक अच्छा और ईमानदारी से काम करे तब तक ही रखो, लेकिन रोटी तो पूरी दो, इतना पैसा तो दो कि वह भी अपने बच्चे को अच्छा पढा
सके।
पूरे
देश में कॉलेज व्याख्याता, अध्यापक, व्याख्याता, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य
विभाग में लाखों की संख्या में विभिन्न कर्मचारी, डाटा ऑपरेटल, अकाउन्टेंट, क्लर्क, आंगनवाडी
कार्यकर्ता आदि कल्याणकारी राज्य में ठेके पर जी रहे हैं।
·
सरकार ने बेरोजगार युवकों की हालत
तो ऐसी की है कि रिक्तियों में आवेदन के लिए प्रार्थनापत्र के लिए एक हजार से पांच
हजार आवेदन शुल्क मांगा जा रहा है। राजस्थान स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय द्वारा
आवेदन पत्रों के लिए पांच-पांच हजार रुपये लिए गए। अन्य विश्वविद्यालयों में भी आवेदन-पत्रों
के एक-एक हजार रुपये लिए जा रहे हैं। बेरोजगार युवकों के साथ इससे बडा भद्दा मजाक और
क्या हो सकता है?
कल्याणकारी
राज्य कि यह कैसी दुष्ट प्रवृत्ति है? संविदाकर्मी नौकरी
से
निकाल
दिए
जाने
के भय से अन्दर ही अन्दर घुटता है, लेकिन न
मीडिया
उसकी
पीडा
को
देखता
है
और
न
न्यायपालिका। क्या
यह
संविधान
और
मानवीय
गरिमा
के
अनुरूप
है? समान काम के लिए समान वेतन का सिद्धान्त
कहां
है? क्या सरकार की यह नीति अराजकता को जन्म नहीं देगी?
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