सोमवार, 20 मार्च 2017

"भगवान का बाजारीकरण"

आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि "भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं""भगवान की सौगंध" लेकर कोर्ट में झूठी गवाही दे दी जाती है। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि "समय के अनुसार आवश्यक है"। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना क्या ठीक है? साधु लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि "ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?" धर्म कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?

मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि "कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही सही, परन्तु पाप तो नहीं होगा, उसके लिए धर्म की आड तो नहीं ही ली जाएगी।" यह मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

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