जिन आत्माओं को विषयों से प्रेम है, उनको क्रोध आए बिना नहीं
रहता। उनके मान-माया या लोभ की सीमा नहीं रहती है। ‘आज आपको कितने में
संतोष है?’ ऐसा कोई प्रश्न करे तो बात कहां जाकर रुकेगी? पांच, दस, बीस, पचास
लाख या इससे भी अधिक लोभ! लोभ की सीमा ही नहीं होती और लोभी प्रपंची बने बिना भी
नहीं रहता। जिसमें विषय का राग है, उसमें क्रोध, मान,
माया और लोभ चारों कायम होते हैं। इनकी आधीनता, इसी का नाम ही तो संसार है।
यह आधीनता भयंकर लगे,
तब ही उससे मुक्त होने की इच्छा होगी, तभी
तीर्थ आवश्यक लगेगा और तभी तीर्थयात्रा का सच्चा भाव पैदा होगा। हृदय में से
विषयों की लालसा हटती नहीं और विषयों की आधीनता के कारण कषाय चुगते नहीं और आत्मा
को विषय-कषाय रूप संसार से तैरने की भावना प्रकट नहीं होती, तब
तक तीर्थ अच्छा कैसे लगेगा?
विषय दुनिया से जाने वाले नहीं हैं, हमें
ही विषयों की आसक्ति से मुक्त होना है।-सूरिरामचन्द्र
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