आत्म-निन्दा,
यह आत्मा की योग्यता को सूचित करने वाली है, मनुष्य
में प्रमादवश या अज्ञानवश पाप हो जाना, यह स्वाभाविक है, किन्तु
पाप यदि हृदय में चुभे नहीं तो धर्म को पाने की भी योग्यता चली जाती है। तो धर्म
आचरण करने की तो बात ही कहां रही? इसलिए जो कोई स्वयं को धर्म पाने के योग्य
बनाने की इच्छा रखता हो अथवा प्राप्त धर्म को स्थिर रखने की इच्छा रखता हो, उनके
पाप कम हो जाएं तब तक आत्म-निन्दा करते हुए स्वयं पर धिक्कार की वर्षा करते रहना
सीखना चाहिए। इस प्रकार से जो स्वयं के पाप के लिए आत्म-निन्दा का शिक्षण लेते हैं, वे
क्रमशः पाप से पीछे हटते जाते हैं। लेकिन, जिनको पाप का भय नहीं होता, पाप
की तरफ तिरस्कार नहीं होता,
स्वयं की जात को पाप से बचाने की इच्छा नहीं होती और
पापकर्म के प्रति जिनके हृदय में घृणा नहीं होती है, वे पाप से बच नहीं
सकते हैं, अपितु उल्टे पापमयता में अधिक से अधिक डूबते जाते हैं। बहुत से लोग कहते हैं
कि ‘इसमें पाप,
उसमें पाप, तो फिर करना क्या?’ सबसे
पहले पाप से बचने के लिए हृदय में पाप का भय पैदा करना चाहिए।
पाप
का भय और पश्चात्ताप जरूरी
जिस आत्मा को पाप से भय उत्पन्न होगा, वह ‘इसमें
पाप, उसमें पाप’
ऐसा ज्ञानी पुरुषों के द्वारा कही हुई बातों को सुनने से ऊब
नहीं जाता है,
अपितु आनंदित होता है। हृदय में जो भय पैदा हुआ होगा तो, ‘पाप!
यह आचरण करने लायक वस्तु नहीं है’, ऐसा वास्तविक निर्णय हो जाने के बाद, उस
आत्मा को पाप करना भी पडे तो भी वह रसिकता के साथ नहीं करता। पाप होने के बाद भी
मन में पश्चाताप करता है। इसके कारण से उसका बंध तीव्र रूप से नहीं होता है और उस
पाप से छूटते उसे देर भी नहीं लगती है।
इसीलिए पाप हो जाए तो उसके लिए आत्मा की निन्दा करना सीखना चाहिए। पर-निन्दा
से बचना चाहिए और स्व-निन्दा (आत्म-निन्दा) को बढाना चाहिए, प्रोत्साहित
करना चाहिए। ऐसा करने पर ही कर्मों की निर्जरा होगी, कषाय समाप्त होंगे, आत्मा
पाप से पीछे हटेगी,
धर्म को पाने की योग्यता आएगी, शान्ति
की ओर गति होगी,
आत्मा की निर्मलता, सरलता और पवित्रता बढेगी जो
आत्मा को मोक्ष मार्ग का,
मुक्ति का पथिक बनाएगी। इसलिए आत्म-निन्दा करना सीखें। यह
आत्म-निन्दा सिर्फ औपचारिकता भर न हो, केवल लोक-दिखावा भर न हो, अंतःकरण
से हो, तभी इसकी सार्थकता है।-सूरिरामचन्द्र
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