देश के
चोटी के 50
उद्योगपति बैंकों से करोडों रुपये का कर्जा लेकर खा गए और अलग-अलग
बैंकों ने ऐसे उद्योगपतियों का छः लाख करोड रुपया डूबत खाते डाल दिया है। इसमें किसी
राजनेता को जोर नहीं आया, बैंकों को आंसू नहीं बहाने पडे।
लेकिन भुखमरी के शिकार, बर्बादी के और आत्महत्या के कगार
पर खडे किसानों का हजार-दो हजार से लेकर अधिकतम एक लाख का कर्जा या ब्याज माफ करने
में सबको गलत लग रहा है। जितना रुपया पचास उद्योगपतियों ने डुबाया है और देश को कुछ
भी नहीं मिला,
उसके एक चौथाई भाग में तो देश के सारे किसानों को राहत दी जा
सकती है,
उनके जीवन बचाए जा सकते हैं और वे देश में अच्छी पैदावार के
लिए,
कृषि के लिए उत्साहित होकर देश को नई खुशहाली दे सकते हैं। सरकार
क्या केवल अमीर उद्योगपतियों के लिए ही काम करने के लिए होती है, गरीब व अन्नदाता किसानों के लिए उसका कोई फर्ज नहीं है? कृषि पर भी किस प्रकार बडे धन्ना सेठों का कब्जा हो सकता है, ऐसे प्रयास तो सामने दिखाई दे रहे हैं, लेकिन
क्या एक सामान्य किसान को मानवीय गरिमा के अनुरूप जीने का कोई हक नहीं है? हमारे यहां आदिवासी क्षेत्र में ऐसे भी किसान हैं, जिन्होंने
बैंक से 20
हजार का कर्ज लिया और 25 हजार
जमा भी करवा दिए, लेकिन फिर भी बैंक उसके पांच हजार बकाया निकाल
रहा है। नहीं देने पर कुर्की ला रहा है, पुलिस के माध्यम से उसे
थाने में मुर्गा बनाया जा रहा है। हिसाब पूछो तो बैंक कहता है कि उसने जो जमा करवाया
वह तो ब्याज पेटे जमा हो गया, अभी पांच हजार और बाकी है। अब
ऐसी स्थिति में विजय माल्या भला या यह आदिवासी किसान भला...? आदिवासी किसान ने कुछ तो जमा करवाया ही है. बैंक
वालों ने आज तक 6 लाख करोड रुपये खा जाने वाले उद्योगपतियों
में से कितनों को थाने में मुर्गा बनाया है? कितनों
के यहां कुर्की की है? क्या यह गरीब-अमीर का भेदभाव संविधान सम्मत
है? क्यों नहीं ऐसे किसानों का कर्ज माफ होना चाहिए..?
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