मधुर स्वर में,
किसी को खलल न हो ऐसे स्वर से, गम्भीर
अर्थपूर्ण स्तवन,
पूरी तन्मयता और हृदय के उल्लास से भगवान के समक्ष गाने
चाहिए कि जिससे दोषों का पश्चाताप टपक पडे और भगवान के गुण आविर्भूत हों। इस
प्रकार आत्मा दोषों से पीछे हटती है, यानी मंदिर से बाहर जाने पर
वह पुनः पूर्ववत् विषयों एवं कषायों में अनुरक्त नहीं होती। हृदय की उमंग के साथ
वास्तविक भक्ति तो सचमुच मनुष्य ही कर सकते हैं। देवतागण विषयों एवं कषायों के
अधीन रहते हैं और उस प्रकार की सामग्री से प्रतिपल घिरे हुए रहते हैं, इसलिए
जितनी उच्च कोटि की भक्ति मनुष्य कर सकते हैं, उतनी उच्च कोटि की भक्ति
देवता नहीं कर सकते। इसलिए देवता भी धर्म-परायण मनुष्यों को नमस्कार करते हैं।-सूरिरामचन्द्र
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