गुरुवार, 2 मई 2013

सेवक का समर्पण भाव


सच्चा सेवक स्वयं की जीत को स्वामी की जीत बताता है और स्वयं की हार को खुद की कमी मानता है। श्री जिनेश्वर देव के सेवक भी ऐसे ही होने चाहिए। शासन के जो-जो कार्य सिद्ध हों, सफल और यशस्वी बनें, इसमें प्रताप श्री जिन शासन का ही मानना चाहिए और किसी विपरीत संयोग आदि के कारण शासन का कार्य करते हुए निष्फल हो जाएं तो इसमें अपनी कमी माननी चाहिए। विपत्ति आए तो अपना पापोदय मानना चाहिए और कार्य सिद्धि में प्रताप देव-गुरु-धर्म का, शासन का मानना चाहिए। यही स्वामी के प्रति सेवक का सच्चा समर्पण-भाव है। श्री वीर हनुमानजी के चरित्र से हमें यह बात सीखनी चाहिए। लेकिन, आज शासन के सेवकों की क्या वास्तव में ऐसी ही दशा, ऐसा ही सोच है?

साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका इस चतुर्विध श्री संघ में जो कोई हो, वे सभी शासन के सेवक गिने जाते हैं। इन सब में से कितनों की यह दशा होगी कि शासन की कार्यसिद्धि में शासन का प्रताप मानते हैं और विपत्ति आए या असफलता मिले तो इसमें स्वयं का पापोदय अथवा स्वयं की कमी मानते हों? ऐसी बहुत ही विरल आत्माएं हैं। आज तो अधिकांशतः ऐसा है कि अच्छा हो तो स्वयं के नाम पर चढाते हैं और बुरा हो तो धर्म के नाम पर चढाते हैं।ऐसे यशलोलुप पामर प्राणी श्रीजिनशासन की वास्तविक सेवा नहीं कर सकते और संकट की स्थिति में उल्टी-सीधी बातें खडी करके अलग हो जाते हैं। ऐसे लोग विश्वास करने योग्य भी नहीं होते और समाज को ऐसे लोगों से सावधान भी रहना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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