शनिवार, 4 मई 2013

धिक्कार के पात्र माता-पिता


मां-बाप संतान को धर्म में जोडें और संतान मना करे तो पूछे कि क्यों नहीं होगा? किन्तु मानो कि ऐसा नहीं बनता हो और धर्म-विरूद्ध जाते हुए को भी नहीं रोक पाएं, तो वे मां-बाप माता-पिता हैं क्या? आज के कितने ही माता-पिता यह कहते हैं कि इकलौता पुत्र है, उसको ऐसा कैसे कहा जा सकता है? कदाचित् कहें तो हमारी सम्पत्ति को भोगने वाला कौन? सचमुच में ऐसे आदमी धर्म की वास्तविक आराधना के लिए अपात्र के समान गिने जाते हैं। जिसको अपना दूध पिलाया, स्वयं गीले में सोकर जिसे सूखे में सुलाया, पाल-पोष कर बडा किया, वह आपका कहना न माने तो समझो कहीं संस्कारों में ही खोट है। हितस्वी माँ-बाप तो कहते हैं कि तेरे धर्म-विरूद्ध व्यवहार से हमारा नाम तथा कुल लज्जित होता है। जो माता-पिता स्वयं की संतान को धर्म के विरूद्ध जाते रोकते नहीं, उसकी भयानक स्वच्छन्दता का पोषण करते हैं अथवा रोकने की स्थिति में होते हुए भी उसके व्यवहार को चलने देते हैं, वे माता-पिता जानबूझकर स्वयं की संतान को दुर्गति में भेजने का, जाने देने का पाप इकट्ठा करते हैं। ऐसे माता-पिता धिक्कार के पात्र हैं। इससे बचने के लिए जड से ही अच्छे संस्कार दो। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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