शिक्षक का वास्तविक कार्य तो
यह है कि वह भाषा आदि सब सिखाने के साथ बालक को समझदार बनाए और उसमें ऐसी क्षमता
विकसित करे कि वह अपने आप संस्कारी बने। माता-पिता ने यदि योग्य संस्कारों का
सिंचन किया होता तो शिक्षक का आधा कार्य पूर्ण हो गया होता। फिर शिक्षक को केवल
माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कारों को विकसित करने की ही जिम्मेदारी रहती।
भाषाज्ञान सिखाना यह वस्तुतः ज्ञान-दान नहीं,
अपितु ज्ञान के साधन
का दान है। सद्गुण प्राप्ति का और अवगुण त्याग का शिक्षण, यही शिक्षा का साध्य है। परन्तु, आज तो प्रायः जैसी माता-पिता की हालत है, वैसी शिक्षक की भी हालत है। सच्चा शिक्षक मात्र किताबी
ज्ञान तक ही सीमित नहीं होता। सच्चा शिक्षक तो विद्यार्थी में सुसंस्कारों का
सिंचन करता है। मात्र किताबी ज्ञान तक सीमित रहने वाला और विद्यार्थियों के
सुसंस्कारों का लक्ष्य नहीं रखने वाला शिक्षक,
शिक्षक नहीं, अपितु एक विशिष्ट मजदूर मात्र है। हमारे सोच को और हमारी
बेकार हो चुकी समग्र शिक्षा-व्यवस्था को आज बदलने की जरूरत है। सब अपना कर्तव्य
पालन करें और आने वाले कल को सुसंस्कारी बनाएं। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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