शुक्रवार, 16 मई 2014

कितना लज्जाजनक है?


जिन तारणहारों के हम अनुयायी हैं, उनके समान बनने की हमारे अन्तःकरण में अभिलाषा है या नहीं? हम जिनका अनुकरण करते हैं, उनके समान बनने की हृदय में तमन्ना तो होती है न? इसलिए वे ऐसे महान कैसे बने, यह ज्ञात करने का भी हम प्रयत्न करते हैं न? उनके जैसा बनने की इच्छा न भी हो, तब भी हम जैन कुल में जन्में हैं और जैन कुल जिन महापुरुषों के कारण गौरवान्वित है, हमें उन भगवान श्री जिनेश्वरदेवों के जीवन-चरित्रों से सम्पूर्णतया परिचित होना ही चाहिए न? अन्यथा हमें जैन कहलाने का भी क्या हक है?

तो हम इस अवसर्पिणीकाल में हुए भगवान श्री ऋषभदेव आदि चौबीस तीर्थंकरों के जीवन-चरित्रों से तो परिचित होंगे न? खासकर वर्तमान शासन के संस्थापक भगवान श्री महावीर परमात्मा के चारित्र से तो हम अच्छी तरह सुपरिचित होंगे ही न? ऐसे सवालों के समय जब आप मौन की स्थिति में रहते हैं तो क्या यह स्थिति श्री जिनेश्वरदेवों के अनुयायियों के लिए शोभनीय है? स्वयं का श्री जिनेश्वरदेवों के अनुयायी के रूप में परिचय देने वालों को उनके चरित्रों का भी ज्ञान न हो तो हमारे लिए लज्जा की बात तो है ही।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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