मंगलवार, 27 मई 2014

विज्ञान ने क्या भला किया?


आज के विज्ञान का ज्ञान के साथ कोई संबंध नहीं है। ज्ञान तो नवतत्त्व से संबंधित है। विज्ञान का इन तत्त्वों के साथ तनिक भी मेल नहीं है। आज के विज्ञानवेत्ता यदि परोपकारी होते तो विज्ञान की शोधों का जो संहारक उपयोग हो रहा है, उसे देखकर वे चौंक पडते और अपने विज्ञान को समुद्र में डुबो देते। परन्तु, वे सब स्वार्थी जमात के हैं। इसीलिए नित-नित नई शोध करके जगत को पागल बना रहे हैं। आज का विज्ञान विनाशक विज्ञान है. आजकल के डेढ अक्ल वाले कई पंडित कहते हैं कि विज्ञान अब पैदा हुआ है, अतःएव यदि सर्वज्ञ हो तो अब ही हो सकता है, जबकि हकीकत इससे उलट है, सर्वज्ञ ने जो देखा, अनुभूत किया वहां तक तो विज्ञान हजारों साल बाद भी अभी तक पहुंचा ही नहीं है और हजारों साल उसे और लग जाएँगे। सर्वज्ञ ने जो कुछ और जितना कुछ बताया, वहां तक पहुंचने में तो अभी आधुनिक विज्ञान को हजारों साल लग जाएंगे, फिर भी वह पूरा नहीं समझ सकेगा। पानी और वनस्पति में जीव हैं, हजारों की संख्या में जीव हैं, उनमें संवेदनाएं हैं; यह बात सबसे पहले हमारे ही तीर्थंकरों ने बताई। यहां तक पहुंचने में ही आधुनिक विज्ञान को कितना समय लग गया? वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु ने 10 मई, 1901 में लंदन के वैज्ञानिकों के समक्ष प्रयोग द्वारा सिद्ध किया कि वनस्पति में जीव और संवेदना है। लेकिन, हमारे तीर्थंकर भगवंतों ने तो इसे हजारों हजार वर्ष पूर्व ही बता दिया था। इसी प्रकार हिंसा-अहिंसा का भेद और परिणाम उन्होंने बताया। क्या पाप है, क्या पुण्य है और ये किस प्रकार मनोवैज्ञानिक तरीके से काम करते हैं, परिणाम देते हैं, यह सब उन्होंने बताया? राग-द्वेष, काम-क्रोध, मोह-मान-माया-लोभ ये ही सब मनोविकारों, मानसिक बीमारियों की जड हैं, इन्हें छोडो। यही सब सामाजिक विषमताओं की जड हैं, इन्हें खत्म करो। यह सब उन्होंने बताया।

महावीर ने कहा दुःख को सहो और सुख में आसक्त मत बनो। जिन्होंने आज का विज्ञान पढा है, उन्होंने गुरुत्वाकर्षण, प्रत्यास्थता और सापेक्षता के सिद्धान्त जरूर पढे होंगे। हम जिस चीज को जितना जोर से ऊपर की ओर फेंकेंगे, उछालेंगे; वह दुगुने वेग से हमारी ओर वापस आएगी। आप एक बॉल को जोर से दीवार पर मारेंगे, तो वह दुगुने वेग से वापस आपकी ओर लौटेगी। यही हाल सुख और दुःख का है। आप दुःख को जितना दूर भगाने का प्रयास करेंगे या आप दुःख से जितना बचकर भागने की कोशिश करेंगे, उतना ही द्विगुणित होकर वह आपके पास आएगा, इसलिए अच्छा है कि आप उससे बचने या भागने की बजाय उसे सहन कर लें, ताकि वह फिर नहीं लौटे, यह कर्म बंध और निर्जराका सिद्धान्त है। यही स्थिति और सिद्धान्त आप सुख पर भी लागू करिए। आप जितना सुख भोगने से बचेंगे, उसके प्रति आसक्ति से बचेंगे, उसके प्रति निर्मोही बनेंगे, उसका त्याग करेंगे, उतना ही वह गुणित होकर आपके पीछे-पीछे दौडेगा, यह पुण्य का स्वभावहै।

मन के वैर-भाव को दूर करने के लिए अहिंसा’, बुद्धि की झडता, और आग्रह को मिटाने के लिए व बुद्धि की निर्मलता के लिए अनेकान्ततथा सामाजिक व राष्ट्रीय विषमता को दूर करने के लिए अपरिग्रहपरमावश्यक तत्त्व हैं। आप लोग विज्ञान-विज्ञान करते हैं, परन्तु मुझे नहीं मालूम कि इस विज्ञान ने आपका क्या भला किया है? पानी के पैसे, प्रकाश के पैसे, पवन के पैसे! यह इस विज्ञान की देन है। प्रकृति ने ये तीनों चीजें मनुष्य को मुफ्त में प्रदान की थी, परन्तु अब इनके पैसे वसूले जाते हैं; फिर भी मूर्ख लोग विज्ञान की तारीफ करते हुए नहीं थकते! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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