गुरुवार, 22 मई 2014

धर्म के बदले पौद्गलिक लालसा


पुद्गलानन्दी आत्माओं की भक्ति निम्न स्तर की हो जाती है। पौद्गलिक लालसाओं में सडने वाली आत्माएं वास्तविक भक्ति कर ही नहीं सकती है। उन आत्माओं को यह ज्ञान ही नहीं होता कि भक्ति का उत्कर्ष किस बात में है और अपकर्ष किस बात में? संसार में मग्न, भोगों में आसक्त और एकान्त विषयों के अधीन बनी आत्माओं को यह विवेक ही नहीं रहता। वह तो संसार के लिए धर्म और भक्ति का सौदा ही करती है।

अतः यदि धर्मात्मा बनना चाहते हो तो अधर्म को मिथ्या मानना सीखो। धर्म-परायण होना हो तो पाप को पाप समझो। अधर्म का त्याग किए बिना जीवन में धर्म आ ही नहीं सकता है। आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध भी खाई जाती है, यह भी कह दिया जाता है कि भगवान को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं।यह धर्म का सम्मान है या अपमान? जब तक आप पाप को पाप नहीं मानेंगे, पुण्य कार्य के प्रति आपके हृदय में सच्चा प्रेम उमड ही नहीं सकता। धर्म के बदले पौद्गलिक आकांक्षाएं अंततोगत्वा विनाश की ओर ही ले जाती है। धर्म और भक्ति मोक्ष के लिए ही होनी चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें