गुरुवार, 1 मई 2014

दुःख के द्वेषी और पाप के प्रेमी


धर्म से सुख प्राप्त होता है’, यह सुन-सुनकर धर्म से धर्म प्राप्त होता है और फिर उससे मोक्ष प्राप्त होता है; इस बात तक पहुंचने की आपकी शक्ति और बुद्धि कुण्ठित हो गई है। धर्म से प्राप्त होने वाले भौतिक सुख तो घास के समान हैं। धर्म का फल अत्यंत दूर है, परन्तु आज अनेक मनुष्य घास रूप भौतिक सुखों में ही उलझ गए हैं। घास तो पशु खाते हैं। आप मनुष्य मिटकर पशु बन गए हैं, अतः आप घास खाने में तल्लीन हो रहे हैं। मैं आप लोगों को मनुष्य बनाकर फल तक पहुंचाना चाहता हूं। इसके लिए आपको सुख-दुःख का वास्तविक स्वरूप समझना होगा। लौकिक सुख और लोकोत्तर सुख दोनों भिन्न हैं, भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख दोनों भिन्न हैं। इसे सतही रूप से नहीं सोचें, इसकी गहराई में जाएं।

दुःख पाप से प्राप्त होता है और सुख धर्म से ही प्राप्त होता है। यह मानने वाला कभी-कभी अच्छा धर्म करता है तो भी वह धर्म की कोटि में नहीं आता, क्योंकि सुख का प्रेम और दुःख का भय अभी तक उसमें से नहीं निकला। ऐसे जीव को धर्म के प्रताप से सुख अवश्य प्राप्त होता है, पर वह सुख उसे अंधा बनाता है। उस अंधत्व का परिणाम यह होता है कि सुखं धर्मात्, दुःखं पापात्’, यह बात भी भुला दी जाती है और फिर वह जीव इतने घोर पाप करने लग जाता है कि अन्त में अनन्त काल तक दुर्गति में भटकने की बात उसके भाग्य में लिख दी जाती है। ऐसे जीव भयंकर पाप करते हैं और दुःख से अत्यंत भयभीत होते हैं।

पाप करूं, लेकिन दुःख नहीं आए, ऐसा चाहने वाले लोगों के समान मूर्ख शिरोमणि संसार में कोई नहीं है। किसी से आप कर्ज लो और वह समय होने पर, मियाद पूरी होने पर मांगने न आए, क्या ऐसा सोचना व्यावहारिक है? किसी से धन उधार लोगे तो वह मांगने तो आएगा ही। उस समय उसके साथ टकराने से नहीं चलेगा। पाप करने का तात्पर्य है- दुःख को निमंत्रण देना। पाप को निमंत्रण भेजने के पश्चात् दुःख को बुलाकर उस अतिथि का सत्कार करने वाला ही सच्चा साहूकार माना जाता है।

वर्षों से मैं आप लोगों को कहता रहा हूं कि यदि आपको दुःख नहीं चाहिए तो आप पाप करते क्यों हैं? इसका उत्तर मुझे प्रायः यही मिलता रहा है कि हम पाप तो प्रेम से करते रहे हैं, परन्तु हमें दुःख नहीं चाहिए। अब इस प्रकार के पागलों को किस पागलखाने में भेजा जाए, यही मुझे समझ में नहीं आ रहा है। आपको दुःख नहीं चाहिए, दुःख से यदि आपको द्वेष है तो पाप से उससे हजार गुना द्वेष रखने में ही आपकी समझदारी है। जरूरत दुःख से डरने-भागने की नहीं है, पाप करने से डरने और बचने की जरूरत है। पूर्व कृत पाप-कर्मों का दुःख आप समभाव से सह लेंगे और नवीन पाप करने से बचेंगे तो आपका कल्याण निश्चित है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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