शुक्रवार, 2 मई 2014

संसार में दुःख तो आता ही है


इस संसार में जीवन यापन करने के लिए किसी वस्तु की आवश्यकता ही न पडे, ऐसा समय तो कभी आता ही नहीं है। अनेक पाप कर के जीवित रह सकें, ऐसे विश्व में रहकर दुःख न आए, यह चाहना तो निरा पागलपन है। संसार मतलब दुःख, यहां कभी न कभी, किसी न किसी रूप में, कोई न कोई दुःख तो अवश्यम्भावी है ही। ऐसे में दुःख को समभाव से सहन करने की बजाय, उसका मातम मनाना, दुःखी होना, आर्त्त-रौद्र ध्यान करना; यह कतई ठीक नहीं है। ऋण देने वाला रकम मांगने आए, तब ऋणी क्रोधित हो तो वह साहूकार नहीं है। हमारे जीवन में आने वाले दुःख हम में मांगने वाले हैं, हमें ऋण देने वाले हैं। उनसे घृणा करना अपनी ईमानदारी नहीं है। दुःखों का मूल कारण इच्छाएं ही हैं। मूर्खों की इच्छाएं बढती ही जाती हैं और समझदार मनुष्यों की इच्छाओं में नित्य कमी होती रहती है। आत्मा को सुख का रसिक बनाना और दुःख से भयभीत रखना तो दुर्गति में जाने का मार्ग है। ऐसे मनुष्य निर्लज्ज हो जाते हैं और दुर्गति में जाते हैं।

आज तो सुख का लोभ और दुःख में व्याकुलता की मात्रा आप में इतनी अधिक बढ रही है कि आप में से अनेक ने तो इसके लिए भगवान को भी सेवक बनाना प्रारम्भ कर दिया है तो फिर ऐसे लोग साधुओं को तो छोडे ही क्यों? भगवान यदि रोग नष्ट करे, उनकी विपत्ति दूर करे; इस तरह वह यदि अनेक प्रकार से उनकी सेवा करें तो ही लोग मन्दिर में जाते हैं और मान्यता के अनुसार केसर चढाते हैं। आज हद तो तब हो जाती है जब लोग मन्दिर में इस प्रकार की बोलमा करते हैं कि भगवान मेरा यह काम हो गया तो मैं इतनी भेंट चढाऊंगा, कई लोग तो भगवान के साथ लाभ का प्रतिशत तय करते हैं। जो भगवान वीतरागी हैं, जो अतुल समृद्धि को ठोकर मारकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त बन गए, उनसे इस प्रकार की अपेक्षा घोर मिथ्यात्व है, भयंकर पाप है। इसी प्रकार साधु भी यदि समाज का कार्य करें तो ही ये लोग साधुओं को पूजेंगे। यह कैसी विडम्बना है?

धर्म-क्रिया केवल मोक्ष के लिए ही करनी चाहिए।आज आपके समक्ष यह बात प्रस्तुत करने में हमें अत्यंत साहस से काम लेना पडता है। हमें निरंतर चिन्ता रहती है कि इस बात के विरोध में आप सब शोरगुल तो नहीं करेंगे न? धर्म से संसार सामग्री प्राप्त करने की हम इच्छा ही कैसे कर सकते हैं? आपके हृदय में यह बात पूर्ण रूप से जँचाए बिना, धर्म से यह मिलता है और वह मिलता है आदि बातें यदि कोई साधु कह सकता हो तो वह आपके संसार-प्रेम का आभारी है। आप यदि उन्हें कहो कि श्रीमान् जो मिलता है, उसकी गिनती क्या कराते हैं? हमें तो वह रीति बताइए कि इस दुःखमय संसार से हम छूट कैसे सकते हैं? यदि आप श्रावकों में से कोई इस प्रकार कहनेवाले मिलें तो साधुओं को भी सचेत हो जाना पडे।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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