बुधवार, 28 मई 2014

जहां पाप वहां दुःख


आजकल हमारी धर्म की बातें बहरे कानों से टकराती हैं। सुनने के लिए तो बहुत आते हैं, परन्तु ये सभी धर्म सुनने नहीं आते, अन्य आकर्षणों या अपने किसी निहीत स्वार्थ के कारण आते हैं। ऐसे लोगों की यहां जरूरत नहीं है। यहां तो सत्य के अभिलाषियों की जरूरत है। परन्तु, संसार में सत्य के अभिलाषी हैं कितने? संसार का सुख जिसे फेंकदेने योग्य लगे, वही हमारी साधु संस्था में प्रविष्ट हो। दूसरे यहां क्यों कर आते हैं? कतिपय इस बात को समझे बिना हमारे यहां आ गए हैं, इसलिए वे लोगों की दया पर जी रहे हैं।

दुःख बिचारा आकर किसी के चिपक नहीं जाता। यह यों ही किसी पर टूट नहीं पडता, यह तो जिसने पाप किया हो उसके ही चिपकता है। जिसको यह समझ मिल गई हो, वह फिर पाप से प्रेम कर सकता है क्या? दरिद्रता दूषण नहीं, श्रीमंताई भूषण नहीं। दूषण तो हैं दोष। भूषण तो हैं गुण।

दुःख अपनी मैली आत्मा को साफ करने के लिए आता है, आत्मा की कालिमा धोने के लिए आता है। पाप से आत्मा मैली होती है। पाप न करने के लिए साधुपन लिया जाता है। यह समझे बिना यदि साधु हो जाए और फिर यहां मजे से पाप करे तो, वह साधु नहीं अपितु वेशधारी है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें