बुधवार, 7 मई 2014

पुण्य का खाता


नीति से कमाया हुआ धन भले ही अच्छा माना जाए, परन्तु धन तो वास्तव में खराब ही है। जो धन का बन जाता है, वह बाप का नहीं रहता, मां का नहीं रहता, भाई का नहीं रहता, पुत्र का नहीं रहता, पुत्री का नहीं रहता; वास्तव में फिर वह किसी का नहीं रहता। धन ही उसके लिए सबकुछ होता है। वह धन के नशे में पागल हो जाता है, बेभान हो जाता है।

पूर्व के कई जन्मों के असीम पुण्योदय से यह मानव जीवन मिला, आर्य संस्कृति और जैनकुल मिला, धर्म गुरुओं का सान्निध्य और धर्म श्रवण का लाभ मिला, वैभव मिला। पूर्व संचित पुण्य से जो कुछ मिला उसे भोग कर नष्ट कर रहे हो और पुराना पुण्य का खाता बन्द कर रहे हो और भौतिक संसारी सुख में बेभान होकर नया पाप का खाता चालू कर रहे हो तो आगे क्या बनोगे- कीडे-मकोडे, सांप-बिच्छू? अरे कुछ तो समझो! -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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