जिनकी ललाट में
भोगावली कर्म लिखे गए थे, आप अपने बचाव के लिए उनकी बात करना
ही मत। आपका तो भोग कर्म नहीं, अपितु पाप कर्म भारी है। भोग तो आप
से दूर भागते हैं और आप उनके पीछे भूत की तरह भटक रहे हैं। त्याग-धर्म स्वीकार
करने के लिए आज आप अपनी अशक्ति अथवा आसक्ति व्यक्त करते हैं, उसे मान्य करने
के लिए मैं तैयार हूं, परन्तु आप जो भोगावली की ढाल धारण कर रहे हैं, उसका मैं विरोधी
हूं।
सम्पत्ति आदि
त्यागने योग्य ही है और साधुत्व ही अंगीकार करने योग्य है; इतनी बात भी आप
सीना ठोक कर नहीं कह सकते। इसलिए मुझे ऐसा लगता है कि आप पुण्यशाली होकर भी पाप की
गठरी साथ लेकर आए हैं।
जैन जन्म घर में
लेता है, परन्तु मरता है
बिना घर का (अनगार) होकर। यह आदर्श आज आपके पास है? जैसे लडके आज आपके
कहने में नहीं हैं, इसलिए उनमें अपलक्षण बढते जा रहे हैं, इसी तरह आप भी
साधु के कहने में नहीं हैं, इसलिए आप में भी अपलक्षण बढ रहे
हैं। जिस प्रकार आप स्वार्थ के बिना संसार में भी किसी पर प्रेम नहीं करते, उसी तरह आप
स्वार्थ सिद्धि के लिए ही धर्म पर भी प्रेम कर रहे हैं, ऐसा मुझे लगता
है। आपके प्रेम की गाडी जिस तरफ दौड रही है, उसकी दिशा मुझे
बदलवानी है।
यदि आपको इह-लोक
भी सुधारना हो तो बहुत सारे गुणों को विकसित करना होगा। मनुष्य मनुष्य का शत्रु कब
बनता है? आप श्रीमंत हैं, तो गरीब आपकी
सम्पत्ति के शत्रु नहीं हैं। वे तो आपकी कृपणता के शत्रु हैं। श्रीमंत को दातार
बनना ही चाहिए। इस लोक की प्रगति में परलोक की अवगति है। इसलिए ज्यों-ज्यों लौकिक
प्रगति बढे, त्यों-त्यों विशेष सावधानी रखे, उसका नाम जैन।
जिसमें एक भी पाप की जरूरत न पडे, वही सचमुच धर्म है। इसलिए ही धर्म
की बात करते समय मैं आपको रजोहरण बताता हूं।-आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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