सज्जनों पर विपत्ति आए इसमें कोई नई बात नहीं है। दुनिया दुर्जनों की है, सज्जनों की नहीं। दुर्जनों के बीच में रहे और विपत्ति न आए, ऐसा होता है? कई बार कुछ भी गफलत किए बिना
भी विपत्ति आती है। पूर्व के पापोदय से सब आता है। भगवान ने कौनसी गफलत की थी? सुदर्शन सेठ का क्या अपराध था? यह
उसी भव की बात है हो! पूर्वभव का अशुभोदय अलग बात है। गजसुकुमाल, ढंढणऋषि तथा झांझरीया मुनिवर की इस भव में कोई गलती थी? मेतार्य मुनि ने चोरी की थी? नहीं ही, फिर भी चोरी का आरोप कैसे आया? खंधक
मुनि ने पूर्वावस्था में किसी की स्त्री पर कुदृष्टि डाली थी? नहीं! फिर भी आरोप आया न?
श्री जिनेश्वरदेव भगवान महावीर परमात्मा जैसे जगत के एकांत उपकारी थे, परम शुद्ध पंचमहाव्रत पालनेवाले थे, जिनके
दान-शील-तप-भाव सर्वोत्कृष्ट कोटि के थे, उनको
भी साढे बारह वर्ष तक लगातार और भयंकर विपत्तियों का सामना करना पडा, बताओ उन्होंने कौनसी गफलत की थी? पूर्व
के कर्मबंध की बात स्वीकार है। बहुत से कहते हैं कि थोडी-बहुत गलती (डेढ वांक) के
बिना लडाई नहीं होती, किन्तु ऐसा सब जगह नहीं होता।
स्वार्थी स्वार्थी में ऐसा हो सकता है। बहुत से मूर्ख कहते हैं कि ‘यह बात सही है कि सामनेवाला पक्ष तूफानी है, किन्तु अपने में भी कुछ तो है न?’ यदि
अपने में कुछ साबित हो जाए तो अपनी कीमत फूटी कोडी की भी नहीं।
दुर्जन की यह आदत होती है कि जहां न हो वहां छेद करे। कौआ किसी जानवर पर बैठे
तो जहां घाव हो उसी में चोंच मारता है और घाव न हो वहां चोंच मारकर नया घाव पैदा
कर देता है। कौआ तालाब में से पानी नहीं पीता है, किन्तु पनिहारिन के बेवडे (मटके) में चोंच डालकर पानी जरूर बिगाड देता है। कौऐ
की यह बुरी आदत है। वहां ‘इस बहिन का ही अपराध है कि वह पानी भरने
आई ही क्यों?’ ऐसा कहना उचित है?
खलः
करोति दुर्वृत्तं, नूनं फलति साधुषु। -सुभाषितमाला
दुर्जनों का सज्जनों के साथ दुश्मनी का व्यवहार जन्मसिद्ध अधिकार है, वहां क्या उपाय हो सकता है? यह तो साहूकार का
दिवालिये के साथ पाला पडने जैसा है। श्री जिनेश्वरदेव और उनके मुनियों ने उपसर्ग
सहकर के केवलज्ञान प्राप्त किया है। उनको उपसर्ग क्यों? तीस दिन के उपवास करे, इगतीसवें दिन पारणा आए, वहां उस पर चोरी का आरोप किसलिए? मेतार्य
मुनि ने चोरी की थी? नहीं, फिर भी इन मासखमण के तपस्वी पर चोरी का आरोप क्यों आया? ‘उन्होंने भी कुछ तो किया होगा।’ ऐसा
यहां कहा जा सकता है? नहीं ही। शास्त्र कहते हैं कि
श्री जिनेश्वरदेव में भी ऐसी शक्ति नहीं थी कि वे पाखण्डियों को समझा पाते। भगवान
चाहे जैसा उम्दा वर्णन करें, किन्तु पाखण्डी बाहर
जाकर बोलते थे कि ‘बोलनेवाले होंशियार जरूर हैं, किन्तु है सब गप्पे।’ हारनेवाले के लिए एक ही
रास्ता है, उसका जब कोई दांव नहीं चलता
तो वह कहता है कि ‘भाई! ये तो बहुत शक्तिशाली हैं।’ किन्तु इनकी बात सच्ची है, ऐसा स्वीकार नहीं
करते।
दुर्जन का स्वभाव ही यह है कि उसे सज्जन खटकता है, इसलिए उसकी एक-एक प्रवृत्ति खटकती है। ये कह देते हैं कि ‘बस, बोले ही कैसे?’ किन्तु बोलने के लिए, कहने के लिए तो ये निकले हैं।
जिन्हें जचे वे सुनें और जिन्हें न जचे वे न सुनें। लेकिन ये तो कहते हैं कि ‘सुनूं नहीं, सुनने दूं नहीं और लडूं’ ऐसे हैं। गलती किसकी?
दुर्जन यदि अपना धारा हुआ सब कर सकता होता तो एक भी सज्जन को जीने देता? सभी की तिजोरी का धन हडप लेने की यदि लोभी में शक्ति होती तो एक भी श्रीमंत
बचता? इसलिए दुर्जनों की परवाह न करते हुए, सज्जनों को अपने मार्ग पर सतत अडिग-अविचल रहना चाहिए, दुनिया जो कहे, जो सोचे। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
महाराजा
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