अविरति का पाप
जीव को चौरासी के चक्कर में भटकाता है। अविरति और कषाय; ये दो पाप ऐसे
हैं जो पंडित को भी पागल बना देते हैं। श्री हेमचन्द्रसूरीजी महाराजा ने
योगशास्त्र ग्रन्थ में शिक्षा देते हुए लिखा है कि ‘तुझे गुस्सा
करना है न? किस पर करना है? दुश्मन पर ही न? दुश्मन पर क्रोध
करने की छूट है, परन्तु जो तेरी
बुराई करते हैं, उन्हें तूने
दुश्मन कैसे मान लिया? वे जो दोष कहते हैं, वे दोष तुझ में हैं? यदि वे दोष तुझ
में नहीं हैं तो कहने वाला अज्ञानी है। अज्ञानी के साथ माथापच्ची करने की क्या
जरूरत है? और यदि वे दोष
तुझ में हैं तो तुझे उनको उपकारी मानकर कहना चाहिए कि भाई! मुझे इस प्रकार
प्रतिदिन कहते रहना, जिससे मेरा सुधार हो जाएगा। क्रोध तो क्रोध पर करना है।’
ऐसी बहुत सी
शिक्षाएं योग शास्त्र में क्रोध, मान, माया और लोभ के
विषय में दी गई है। महापुरुष तो अपने लिए बहुत चिन्तन कर के लिख गए हैं, परन्तु बहुत
लोगों को आज के लेखकों का साहित्य पढना ही रुचिकर लगता है, वहां क्या हो
सकता है? जिन में
वीतरागता के प्रति राग नहीं है और जिनके हृदय में राग-द्वेष की होली जल रही है, ऐसे लेखकों का
साहित्य आपका क्या भला करेगा? सोचें जरा! -आचार्य
श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा
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