रविवार, 10 जनवरी 2016

वैराग्य क्या है ?



वैराग्य क्या है? संयम क्या है? वैराग्य किसे कहते हैं? संयम किसे कहते हैं? वैरागी या संयमी का आचार-विचार-व्यवहार कैसा होता है? किस प्रकार वह पौद्गलिक सुखों को दुःखरूप मानता है और पौद्गलिक दुःखों को सुखरूप मानकर उन्हें आनन्द पूर्वक सहन कर लेता है? वैरागी कितना फक्कड होता है, कितना मस्तमौला कि उसे लोकप्रवाह की कोई परवाह ही नहीं होती, वह तो अपनी ही धुन में अपनी ही आत्मा में रमण करने वाला होता है। उसे इस बात की कतई चिन्ता नहीं होती कि कौन बुरा मानेगा या कौन अच्छा मानेगा, वह तो निष्कपट भाव से, बिना किसी लाग-लपेट के, बिना किसी राग-द्वेष के जो सत्य होता है उसे कहने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करता। वह चौबीसों घण्टे आत्म-रमण में, आत्मा की शुद्धि कर उसे परिपुष्ट बनाने वाली क्रियाओं में ही व्यस्त रहता है। उसे न सुख-दुःख का भान होता है और न ही किसी शारीरिक बीमारी की चिन्ता-फिक्र होती है, भोजन मिला तो क्या और न मिला तो क्या, शरीर को जितनी आवश्यकता है, उससे कम खाना, बिना रसास्वाद के खाना और मस्त रहना, यही उसकी नियति है।

वैराग्य पर कई मनीषियों ने विचार किया है, मात्र विचार ही नहीं, उसे बडी गहराई और उदाहरणीय ढंग से अपने चरित्र में प्रतिबिम्बित किया है, जिया है, जी रहे हैं; इसलिए वैराग्य को किसी अकल्पनीय, अव्यावहारिक, स्वप्निल अथवा अनुपयोगी वृत्ति के रूप में नहीं देखा जा सकता। कुछ लोग जो वैराग्य के बुनियादी अर्थ को जानने का प्रयत्न नहीं करते, इसे जीवन और जगत को नकारने वाली अथवा पलायनवादी प्रवृत्ति के रूप में समझते-समझाते हैं। वस्तुतः वैराग्य जीवन की निषेधात्मक वृत्ति नहीं है। इसे उलट-पलट कर सब ओर से देखने पर इसकी प्रभावशाली रचनात्मकता स्पष्ट होने लगती है। वैराग्य को जब हम अनुराग या अतिरिक्त पाने की विरोधी वृत्ति के रूप में देखते हैं तो बात बिगडने लगती है। विरोध, चाहे वह जैसा हो बहुधा काम बिगाड देता है। भावना जगत में हमें विरोध की जगह संवेदना और सापेक्षता को देनी चाहिए तथा इसी नजरिए से देखना चाहिए कि वैराग्य का मूल संदर्भ क्या है? अंग्रेजी में एक शब्द है "डिटेचमेंट", जिसका सीधा अर्थ है निष्काम पार्थक्य। इस शब्द के माध्यम से हमें वैराग्य के अलग-अलग रंग देखने चाहिए।

वैराग्य एक बहुप्रयत्न शब्द है। वैराग्य-महल की बुनियादी ईंट निष्काम चित्त है। कामना-शून्य होना एक कठिन काम है। हर आदमी कामनाओं की एक हरीभरी फसल होता है। कोई काम न हो तो भी कामना तो करनी ही है। शेखचिल्ली के पास कोई साधन नहीं थे, किन्तु उसकी नगण्य कामना के एक बिन्दु में से कई सिन्धु जन्म लेने लगे। निष्कामता संयम की अनुपस्थिति में संभव नहीं है। संयमी हुए बिना निष्काम-चित्त होना करीब-करीब स्वप्न ही है। हम चाहें कि नींव के बिना कोई महल उठाए, तो वह स्वप्न ही होगा, महल नहीं, ठीक ऐसे ही संयम के बिना वैराग्य संभव नहीं है।

संयम का सीधा संबंध मन से है। मन पर इतना शासन या काबू हो कि मन चाहे समय पर उससे मन चाहा काम लिया जा सके। मन का साम्राज्य अनंत है, उसे पराजित करना और उस पर सत्ता कायम करना किसी राजनीतिक तकरीर की तरह आसान नहीं है। एक तो वह गंजे आदमी या वक्त की भांति बडी स्निग्ध युक्तियों की पकड से बाहर बना रहता है और कभी जाल में फंस भी गया तो उसके चूहे दोस्त उसे व्यूह से निकालने के लिए मुस्तैदी से तैनात रहते हैं, इसलिए वैराग्य प्राप्त करने के लिए पहला काम होगा मन पर कडा अंकुश। वह यदि दृढता से आदमी के आत्मानुशासन की पकड में आ गया तो फिर निष्काम और विरक्त होने में वक्त नहीं लगता।

भारतीय दर्शन में प्रवृत्ति और निवृत्ति शब्द बहुत चर्चित हैं। हम डूब जाएं और समझ बैठें कि हम उससे भिन्न नहीं हैं, तो यह प्रवृत्ति है। वस्तुतः प्रवृत्त होना शायद उतना घातक नहीं है, जितना प्रवृत्त होने के बाद अपनी मूल सत्ता और स्वरूप का भान न रखना और चित्त के ऐसे स्वामित्व से वंचित हो जाना कि "जब चाहा तब संलग्न और जब चाहा तब विलग्न"। इसे प्रवृत्ति सूचक निवृत्ति की संज्ञा दी जा सकती है। असल में प्रवृत्ति और निवृत्ति के बिना जीवन की व्यवस्था हो ही नहीं सकती। प्रतिक्षण हम किसी न किसी रूप में प्रवृत्त या निवृत्त होते ही हैं; किन्तु जब हम इतने स्वाधिकार सम्पन्न होते हैं कि जब चाहा तब प्रवृत्त और जब चाहा तब निवृत्त, तब हमारे उस कर्तव्य में एक ओज और आभा दिखलाई देती है। साधारण प्रवृत्ति के बारे में हम यहां विचार नहीं कर रहे हैं।

बहुत साधारण-सा सवाल है कि हम खाने के लिए जी रहे हैं या जीने के लिए खा रहे हैं? प्रवृत्ति और निवृत्ति, संयम और वैराग्य की समझ इस सवाल की गहराई में है, यदि इसका जवाब प्रतिपल हमारे मन, विचार और व्यवहार में रहे। एक और बात कि मैं शरीर से संचालित नहीं हूं, शरीर मुझसे संचालित है। मैं अपनी अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं को खुद-ब-खुद देखता हूं। शरीर मेरा दृष्टा और नियामक नहीं है। इसीलिए जब चाहता हूं तब और जितनी देर चाहता हूं, उतनी देर सो लेता हूं। मेरे हिसाब में दिन काम करने के लिए और रात सोने के लिए नहीं है। यह विभाजन साधारणतः ठीक हो सकता है, किन्तु इसे अंतिम हर्गिज नहीं मानना चाहिए। यदि यह अंतिम सत्य होता तो भगवान ऋषभदेव अपने एक हजार वर्ष के संयमी जीवन में कुल मिलाकर मात्र एक माह के समय जितनी निद्रा, वह भी टुकडों-टुकडों में; इसी प्रकार प्रभु महावीर साढे बारह वर्ष के अपने छद्मस्थकाल में सिर्फ एक अंतर्मुहूर्त (48 मिनिट और वह भी टुकडों-टुकडों में जैसे सामान्य रूप से झपकी लेते हैं वैसे) ही क्यों सोते? नींद प्रमाद है। शरीर को समय-असमय छूट देने से उसमें कुछ व्यसन पैदा हो जाते हैं। रात हुई नहीं कि पलकें झपकने लगती है। किन्तु, विरागी जब चाहता है तब सोता है और जब आवश्यक समझता है, जागता है। नींद उसकी चेरी है, वह नींद का गुलाम नहीं, वह विरागी की मालकिन नहीं। जीवन की ऐसी उपलब्धि वैराग्य का दर्पण है, वैराग्य की यह पहली शर्त है।

वैराग्य जीवन और जगत को झुठलाने का नाम नहीं है, वह इन्हें माँझने और इनके यथार्थ रूप को उघाडने की एक प्रक्रिया है। वैराग्य सम्पन्न व्यक्ति प्रवृत्ति में हर्ष और निवृत्ति में शोक नहीं देखते। उनका प्रसन्न और खिन्न होना किसी अन्य के हाथ में नहीं होता। उन्हें परिस्थितियां सम्पन्नता-विपन्नता और संयोग-वियोग में प्रसन्न या अप्रसन्न करने में समर्थ नहीं होती। सच्चा वैरागी झुंझलाना तक नहीं जानता; वह चित्तवृत्तियों के नियमन की कला भलीभाँति जानने लगता है।

वैराग्य से मिलता-जुलता एक शब्द है, ‘अनासक्ति। किसी परिस्थिति या जीवन-संदर्भ में लगाव का न होना अनासक्ति है। इसे योग का दर्जा दिया गया है। इसके लिए बडे अभ्यास की और एकाग्रचित्त होने की जरूरत है। आसक्त होना जितना आसान है, अनासक्त होना उतना ही मुश्किल। राग और आसक्ति लगभग समानार्थक हैं। अनासक्ति में भी मन पर नियमन अन्तर्निहित है। निष्पक्ष सोच-विचार की दृष्टि से अनासक्त होना आवश्यक है।

एक दूसरा शब्द है, "उदासीनता"। यह शब्द मन की खिन्नता, पलायनवृत्ति और जडता को व्यक्त करता है, वैराग्य इससे अलग है। निराशा इस शब्द में बैठी झांक रही है। उदासीन व्यक्ति घबराकर भागता है, उसने यह काम बहुत सोच-समझ कर नहीं किया। कई लोग उदासीनता को वैराग्य से जोड देते हैं, लेकिन यह वैराग्य पथ पर बढने का एक निमित्त कदाचित हो सकता है, सम्पूर्ण वैराग्य उसमें अंतर्निहित हर्गिज नहीं है। वैराग्य में साहस है, पराक्रम है।-सूरिरामचन्द्र

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