‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’, इन चार पुरुषार्थों में अर्थ और काम तो नाम के ही पुरुषार्थ कहे हैं।’ कारण कि अर्थ और काम की प्राप्ति स्वतंत्र रूप से
नहीं है, उनमें अन्य पुण्य वस्तु की अपेक्षा
रहती है। दुनिया के सभी लोग अर्थ और काम के लिए रात-दिन मेहनत करते हैं, रात-दिन अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए ही विचार और
प्रवृत्ति करते हैं। अर्थ और काम की प्राप्ति के लिए अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं,
फिर भी हम देखते हैं कि दुनिया में श्रीमंत कितने और गरीब कितने? भोग की सामग्री से सम्पन्न कितने और भोग की सामग्री
से रहित कितने? इससे स्पष्ट है कि पुरुषार्थ करने
पर भी इच्छित की प्राप्ति सभी को नहीं होती है।
अर्थ और काम की प्राप्ति इस जन्म
के पुरुषार्थ के अधीन होती तो किसी को भी पुरुषार्थ किए बिना अर्थ-काम की प्राप्ति
नहीं होनी चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं होता है, क्योंकि कई लोग ऐसे स्थान में जन्म लेते हैं, जिन्हें लेशमात्र भी श्रम किए बिना अर्थ-काम की
प्राप्ति हो जाती है। राजा व श्रीमंत के यहां जन्म लेकर राजा व श्रीमंत बनने वालों
ने इस जन्म में कौनसा पुरुषार्थ किया था? किसी को बिना किसी
मेहनत के विपुल सम्पत्ति का स्वामीत्व प्राप्त हो जाता है, उसमें
इस जन्म की मेहनत कहां थी?
इससे सिद्ध होता है कि
सिर्फ इस जन्म के पुरुषार्थ से अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होती है, अपितु पुरुषार्थ करने पर भी उसी को अर्थ-काम की
प्राप्ति होती है, जिसने पूर्व भव में पुण्यकर्म का
उपार्जन किया हो। जिसने पूर्वभव में पुण्य उपार्जन नहीं किया, उसे लाख प्रयत्न करने पर भी इस जन्म में इच्छानुसार
अर्थ-काम की प्राप्ति नहीं होती है।
जिस प्रकार बिना श्रम किए अर्थ-काम
की प्राप्ति किसी भाग्यशाली को होती है, उसी प्रकार अर्थ-काम का
भोग भी भाग्यशाली ही कर सकता है। भाग्य न हो तो घर में मेवा-मिष्ठान्न व अनाज के
भण्डार भरे पडे हों तो भी मूंग के पानी या छाछ पर जिन्दा रहना पडता है। जिसका भाग्य
नष्ट हो गया हो, वह लाख कोशिश करे तो भी उसे
राजगद्दी छोडनी पडती है। बडे श्रीमंत को भी दर-दर भीख मांगनी पडती है। इस प्रकार
अर्थ-काम की प्राप्ति, उनका भोग और उनका संरक्षण इस जन्म
के पुरुषार्थ के अधीन नहीं है, भाग्याधीन है।
पूर्वोपार्जित पुण्याधीन है। इन सब बातों से यह स्पष्ट होता है कि दुनिया भले अर्थ
और काम को पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार करे, लेकिन
ये नाम के ही पुरुषार्थ हैं।
इस दुनिया में अर्थ-काम की जो
अनुकूलता प्राप्त होती है,
वह पुण्य के योग से और
जो कुछ विडम्बनाएं प्राप्त होती हैं, वह पाप के योग से होती
हैं। इस बात से सभी आस्तिक दर्शनकार इत्तफाक रखते हैं। सत्कर्म से पुण्य और
दुष्कर्म से पापबंध होता है। सत्कर्म भी धर्म का ही एक प्रकार है, इसलिए यह मानना पडेगा कि धर्म के बिना अर्थ-काम की भी
सिद्धि नहीं होती है। मोक्ष की सिद्धि भी धर्म के बिना नहीं होती। इससे स्पष्ट है
कि दुनिया में चार पुरुषार्थ कहे भले ही हों, किन्तु
धर्म ही सच्चा पुरुषार्थ है। चूंकि सच्चे और अक्षय सुख की प्राप्ति मोक्ष में ही
संभव है, इसलिए ज्ञानियों ने अर्थ-काम को
हेय मानकर सिर्फ मोक्ष के लिए ही धर्म करने का उपदेश दिया है।-सूरिरामचन्द्र
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