पुण्यशाली मनुष्यों को केवल एक श्वेत बाल देखने से ही
कितना विचार उत्पन्न हो जाता था कि वे सबकुछ छोडकर आत्म-कल्याण के मार्ग पर निकल
पडते थे। क्या आज हमारे समक्ष ऐसे व्यक्ति नहीं हैं, जिनके सिर पर एक भी काला बाल दृष्टिगोचर नहीं होता? ऐसे अनेक व्यक्ति हमारे समक्ष हैं, फिर भी हम उनकी भावनाओं में किसी
भी प्रकार का सुन्दर परिवर्तन नहीं देख पा रहे हैं। कारण क्या है? तनिक सोचो।
वर्तमान भयानक वातावरण ने भी धर्म-भावना पर कितना
क्रूर प्रहार किया है, इस
पर भी विचार करो। स्पष्ट है कि धर्मात्माकुलों में से उत्तम प्रकार के आचरण नष्ट
हो गए हैं, उसका
ही यह परिणाम है। आज विचारों को उधार लेकर विचारक बने हुए मनुष्यों ने शुद्ध
आचारों की मर्यादा के समक्ष काला वातावरण उपस्थित करके निर्घृण परिस्थिति उत्पन्न
की है, अन्यथा आर्यदेश, आर्यजाति और आर्यकुल में उत्पन्न
मनुष्यों में यह निर्घृण स्थिति उत्पन्न होनी असंभव थी।
आर्यजाति एवं आर्यकुलों में से परलोक का ध्यान तक
लुप्त हो जाना क्या आध्यात्मिक दृष्टि से साधारण क्षति है? आर्य यदि अपने आर्यत्व को समक्ष रखकर इस बात पर विचार
करें तो वे स्वयं ही अपनी निर्घृण दशा से अवश्य ही कांप उठेंगे, परन्तु इस सब का विचार कौन करे? इस प्रकार के चिन्तन के अभाव से
वर्तमान व्यवहार में भी ऐसी कलुषित भावना आई है कि उसके कारण शान्ति ने निष्कासन अपना
लिया है और अशान्ति ने घर बना लिया है। आज अहिंसा, सत्य, संयम अथवा तप भी वही सच्चे माने जाते हैं, जो वर्तमान विश्व की मांग और सुविधा के अनुरूप हों।
आज अधिकतर जनता को जितनी चिन्ता अपने ऐहिक उदय की है, उसके करोडवें भाग जितनी चिन्ता भी अपने देव, गुरु अथवा धर्म की नहीं है।
जो लोग देव, गुरु और धर्म की शास्त्र-निर्दिष्ट आराधना में श्रद्धा नहीं रखते, वे लोग तो आज इतनी अधिक अधम दशा को
पहुंच चुके हैं कि रत्नत्रयी, उसकी
आराधना और उसके आराधकों की निंदा करने में ही अपने दुर्लभ मानव जीवन की सार्थकता
मानते हैं। उनके योग्य नायक भी उन्हें अनायास ही मिल गए हैं, जो सत्य के नाम पर
देव एवं गुरु की आज्ञा से परांगमुख बनकर मति-कल्पना एवं अन्तरध्वनि पर स्थिर होने
एवं शास्त्रों एवं शास्त्रकारों के प्रति अध्ययन किए बिना ही इच्छानुसार आक्षेप
करना सिखाते हैं, संयम
के नाम पर अनंत उपकारियों द्वारा बाँधी हुई सुन्दरतम मर्यादाओं को उलट कर, किसी प्रकार की रोक-टोक बिना
अधमाधम अनाचार सरलता से प्रारम्भ हो सकें, ऐसा बोध देते हैं। विश्व में कोई ऐसा विषय नहीं है, जिसमें बिना अध्ययन के भी वे अपनी
टांग नहीं अडाते हों। क्या यह सब हमें उत्तेजित नहीं करता, खासकर तब, जब वे धर्म पर ही हमला करते हों? -सूरिरामचन्द्र
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