उपकारी महापुरुषों ने हमें आत्मा
के मूल स्वरूप को प्रकट करने का मार्ग बताया है, उसी
का नाम धर्म है। आत्मा के स्वरूप को प्रकट करने के ध्येय से ही धर्म आचरण करना
चाहिए। दुनियावी वस्तुओं में सुख देने की शक्ति नहीं है, यदि
होती तो वे चीजें किसी को सुखदायी और किसी को दुःखदायी लगे ऐसा न होता। इतना ही
नहीं, दुनियावी वस्तुएं चाहे जितनी मेहनत
और पाप करके प्राप्त की हो तो भी उनकी सुरक्षा और उनका भोग व्यक्ति की इच्छा के
अधीन नहीं है।
मेहनत और पाप करने के पश्चात भी
जिसका भाग्य होता है, उसी को दुनियावी वस्तुएं प्राप्त
होती हैं। दुनियावी वस्तुएं मिलने के बाद भी जिसका भाग्य हो वो ही व्यक्ति उन्हें
भोग सकता है। भाग्य में न हो तो देनदार कर्ज न चुकाए, घर
में चोरी हो जाए, खेती-व्यापार में नुकसान हो जाए, आग लग जाए। इस प्रकार अनेक कारणों से प्राप्त वस्तुएं
भी चली जाती हैं। कदाचित् भाग्य योग से रह जाएं और भोगने का भाग्य न हो तो ऐसी
बीमारी आ जाती है, जिस कारण खाना-पीना, ओढना-पहिनना बंद हो जाता है। कदाचित् भाग्य अनुकूल हो
और वस्तुएं भोगने को भी मिलें, तब भी अंत में तो उन
सबको यहीं छोडकर अकेले ही जाना पडता है।
इसलिए दुनियावी वस्तुओं में सुख
मानने में बुद्धिमत्ता नहीं है। इन नाशवंत और पराधीन वस्तुओं की प्राप्ति, सुरक्षा और भोग में मशगूल बनकर असीम पुण्य योग से
प्राप्त इस मनुष्य जन्म को पापों से मलीन करना, सिर्फ
मूर्खता ही है। ऐसी मूर्खता कर सुख की आशा रखना, यह
तो महामूर्खता है। ज्ञानी महापुरुषों ने इस मूर्खता को छोडने का उपदेश दिया है।
उनका तो उपदेश है कि, ‘दुनिया के किसी भी पदार्थ में सुख
नहीं है, सुख तो सिर्फ आत्मा में ही रहा हुआ
है।’ इस सत्य को समझकर आत्मा के सुख को
प्रकट करने के लिए पाप को त्यागो और सच्चे धर्म के सेवन में तत्पर बनो। उपकारी
महापुरुष फरमाते हैं कि ज्ञान-चक्षु खोलो, वस्तु-स्थिति
को समझो।
‘दुनिया के नाशवंत पराधीन पदार्थों के संयोग से सुख
मिलता है’, इस भ्रम को दूर कर आत्मा में रहे
शाश्वत सुख को प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील बनो। पुण्योदय से प्राप्त दुनियावी
वस्तुओं का भी मोह छोडो,
क्योंकि उन वस्तुओं में
सुख मानकर भोग में पडोगे तो पाप का बंध होगा, जिसके
फलस्वरूप पुनः दुःख प्राप्त होगा। पुण्योदय से प्राप्त दुनियावी वस्तुओं का भी
त्याग करना और दुःख में भी खेद न कर, धर्म का आचरण करना, यही सच्चे सुख का श्रेष्ठ मार्ग है। महान पुण्योदय से
प्राप्त मानव जन्म को सफल व सार्थक बनाने के लिए यही एक मार्ग है। पूर्व के अनंत
भवों की तरह यह भव भी निरर्थक चला गया तो वापस आर्य संस्कृति, सुदेव, सुगुरु, सुधर्म का योग कब मिलेगा, कहा
नहीं जा सकता।-सूरिरामचन्द्र
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