बुधवार, 20 जनवरी 2016

सत्पुरुष छल नहीं करते



नाशक-छल सत्पुरुषों का धर्म नहीं है। सत्पुरुष प्रपंचियों के नाशक प्रपंच को समझते जरूर हैं, किन्तु उनके नाशक-प्रपंचों को स्वयं के जीवन में कभी आगे नहीं करते हैं। सत्पुरुष नाशक-प्रपंच का जीवन में आदर करने वाले बनें तो सामान्य कोटि के सज्जन आत्मा के लिए जीवित रहना दुष्कर है। जिसके आधार से जीना होता है, वही यदि नाशक-प्रपंच करने वाला बने तो जीना दुष्कर होता है।

सत्पुरुषों की जवाबदारी कम नहीं होती। सत्पुरुषों का जीवन कठिन से कठिन जीवन होता है। सत्पुरुषों को एक-एक प्रवृत्ति भी स्व-पर हित की साधक बनानी चाहिए। सत्पुरुषों की अकडाई भी नम्रता का घर होनी चाहिए। सत्पुरुषों का कोप भी क्षमा का घर होना चाहिए। सत्पुरुषों की माया भी सरलता का घर होना चाहिए और सत्पुरुषों का लोभ भी संतोष का घर होना चाहिए। दुर्जनों की आत्माएं स्व-पर के अहित को साधने वाले जो-जो उपाय करती हैं, वे समस्त उपाय स्व-पर हित की साधना में योजित करने का सामर्थ्य सत्पुरुषों में होना चाहिए। ऐसे सामर्थ्य के बिना स्व-पर का हित-साधन करना संभव नहीं है।

इसी कारण सत्पुरुषों में सहनशीलता के साथ ही कर्तव्य परायणता भी होनी चाहिए। सत्पुरुषों में अज्ञानियों की तरफ से सेवित अज्ञानजन्य दोषों की सहनशीलता अथाग होनी चाहिए। इसी प्रकार कर्तव्य-परायणता भी अजोड होनी चाहिए। एकाकी सहनशीलता भी व्यर्थ है और एकाकी कर्तव्य-परायणता भी व्यर्थ है। सत्पुरुषों की सहनशीलता हिम/बर्फ की तरह होनी चाहिए। जबकि कर्तव्य-परायणता अग्नि की ज्वाला के समान होनी चाहिए। इन सत्पुरुषों की सहनशीलता में अज्ञानियों के दोष जल जाते हैं और कर्तव्य-परायणता में प्रमादी आदमियों की आक्रामकता जल जाती है। सचमुच में ऐसे महापुरुष इस संसार के लिए मुक्ति के दूत होते हैं।

ऐसे सत्पुरुषों के समक्ष आप यदि छल करेंगे तो हमारे लिए जीवन भी मरण के समान है। इस प्रकार कहने का अधिकार प्राप्त करने के लिए सबसे पहले ऐसे महापुरुषों के चरणों में स्वयं का सर्वस्व समर्पण करना पडता है। सर्वस्व समर्पण के बिना जो अधिकार को पचाना चाहते हैं, वे इस लोक में ठोकर खाते हैं और परलोक में बर्बाद होते हैं।

अधिकार बिना की एक भी चेष्टा आत्मा को हितकर नहीं होती है तो ऐसी एक अद्भुत् वस्तु अधिकार के बिना क्योंकर हितकारी बन सकती है? समर्पण के अभाव में अधिकार की बातें करना यह लबाड की बातें हैं। ऐसी व्यर्थ की बातें करने वाली आत्माएं स्वयं के जीवन की अनधिकार चेष्टा करते हुए असंतोष रूप अग्नि में जलती रहती हैं। सर्वस्व समर्पण में भी अहंकार का लेश मात्र भी अंश नहीं होना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र

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