विचार करिए कि पिता की आज्ञा-पालन करने में पत्नी को
पूछा जाता है क्या? पिता
पहले या पत्नी? पिता
पत्नी को लाए अथवा पत्नी पिता को लाई? सचमुच में विचार और विवेकहीन युग में आज तो पत्नी की खातिर पिता को भी भूल
जाते हैं। वस्तुतः यह लक्षण नीच आदमियों का है।
श्री कल्पसूत्र में आता है कि तिर्यंचों को भी
मां-बाप की आवश्यकता जब तक गरज होती है तब तक ही और मनुष्यों में भी ऐसे अधम होते
हैं कि पत्नी के मिलने पर मां-बाप को भूल जाते हैं, नहीं तो पिता की आज्ञा पालन करने में पत्नी की आज्ञा
लेने की आवश्यकता ही नहीं रहती है। पहली बात तो यह कि पत्नी की आज्ञा ही नहीं होती, इतना ही नहीं, अपितु पिता की आज्ञा में तो पत्नी
की अनुमति, सहमति
लेने की आवश्यकता भी नहीं है।
इसी प्रकार गुरु की आज्ञा पालन करने में अवरोध करने
वाले माता-पिता की आज्ञा का पालन करना आवश्यक नहीं है। कारण कि एकान्त कल्याणकारी
गुरु की आज्ञा का पालन करने में माता-पिता की आज्ञा मानने के लिए आत्मा बंधा हुआ
नहीं है। इसी प्रकार श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा के विरूद्ध जाती हुई गुरु की
आज्ञा को मानने के लिए भी वह बंधी हुई नहीं है। कैसी सुन्दर मर्यादा!
इससे समझ लीजिए कि माता-पिता की आज्ञा पालन करने हेतु
पत्नी की अनुमति या सहमति आवश्यक नहीं है। सहमति मिले तो बहुत अच्छा, जिससे कि विघ्न न आए और काम अच्छा
हो। इसी प्रकार गुरु की आज्ञा पालन में भी माता-पिता की आज्ञा की आवश्यकता नहीं।
मिले तो बढ़िया, सोने
में सुहागा। श्री जिनेश्वर देव की आज्ञा से जो गुरु की आज्ञा दूर जाती हो तो गुरु
भी दूर।
शास्त्र कहता है कि पति उन्मार्ग पर जा रहे हों तो
पत्नी उन्हें रोकने के लिए सबकुछ करे और पति सन्मार्ग पर जा रहा हो तो शक्ति हो तो
उनके पीछे जाए, नहीं
तो तिलक करके घर आए। यह सब उच्च कुल की मर्यादा है। मर्यादा मानने वालों के लिए यह
सब कुछ है। मर्यादाहीन के लिए तो कोई नियम ही नहीं होता है।-सूरिरामचन्द्र
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