आज श्रीमंत धर्म नहीं करते हैं। इसके भी अनेक कारण
हैं। धर्म की भावना भी सुयोग्य आत्माओं में ही उत्पन्न होती है। समृद्धिमान जो
सुज्ञपन से विचार करें तो धर्म की आवश्यकता समझ सकते हैं। श्रीमंतों को विचार करना
चाहिए कि स्वयं समृद्धिमान क्यों? और
दूसरे गरीब क्यों? पूर्व
के पुण्य-पाप का यह प्रभाव है। लेकिन, श्रीमंतता में भान भुले हुए भविष्य का वास्तविक विचार नहीं कर सकते हैं।
समृद्धि का उपयोग करना आए तो मोक्षमार्ग की आराधना
में सहायक बन सकते हैं और उपयोग करना नहीं आए, तो उसके मद में बेहोंश होकर देव-गुरु-धर्म के लिए
जैसे-तैसे बोले। इन्द्रियों पर अंकुश नहीं रखा जाए तो यही श्रीमंतपना दुर्गति में
ले जाने के कारणरूप बनता है।
आज के श्रीमंतों में बहुतायत करके लक्ष्मी को देव
जैसी मानते हैं। लेकिन, विवेकवान
लक्ष्मीवान् इसे खोटी मानते हैं, उपाधिरूप
मानते हैं, तभी
धर्म कर सकते हैं। यदि श्रीमंतों के हृदय में धर्म-भावना बस जाती तो वे स्वयं धर्म
की उत्तम प्रकार से आराधना कर सकते थे और साथ ही साथ संख्याबद्ध गरीबों को भी धर्म
के मार्ग से जोड सकते थे, यह स्पष्ट बात है। पर यह विचार किसको आए? पुण्यानुबंधी पुण्य हो तो ही
प्रायः इस प्रकार के विचार आ सकते हैं।
याद रखो कि धर्मी कदापि दुःखी नहीं होता है। दुःख पाप
से और सुख धर्म से, ऐसा
तत्त्व ज्ञानी परमर्षियों ने कहा है। पूर्व भव की तपस्या के प्रभाव से विशल्या के
स्नान-जल से भी जनता रोग-रहित हो जाती है। आज तो धर्म बराबर करे नहीं, अन्दर हृदय में जहर भरा हो और
कहेंगे कि ‘धर्म
फलता नहीं।’ ऐसों
को कहा जाए कि ‘धर्म
किया हो तो फलेगा न?’ व्यर्थ
में धर्म को बदनाम न करो। धर्मी आत्मा तो दुःख में सुख का अनुभव कर सकती है। समभाव
से दुःख को सहन करे, कर्म
की दशा को समझे और धर्म करे, तो
दुःख में भी सुख का स्वाद चख सकती है। धर्म की परिणति यह ऐसी वस्तु है।
राजा कुमारपाल की तरह ‘धर्महीन दशा वाली चक्रवर्ती की अपेक्षा, धर्म वाली दरिद्र अवस्था भी मुझे
प्राप्त हो जाए’, ऐसा
कब बोला जाता है? तभी
ऐसा हृदयपूर्वक बोला जा सकता है कि जब यह समझ पक्की बन जाए कि ‘धर्म के बिना कल्याण नहीं। धर्महीन
चक्रवर्तीता तो आत्मा का एकांत रूप से नाश करने वाली है।’ ऐसा हृदय में बराबर जच जाए। उसके बाद तो चक्रवर्ती की
अपेक्षा भी उस दरिद्रता में आत्मा सच्चे सुख का अनुभव कर सकती है। यही धर्म का
अनुपम प्रभाव है।
पूर्वकृत पुण्य से मिली लक्ष्मी से पाप करना या पुण्य
को बढाना? यह आपके हाथ में है।
विवेक पूर्वक आप इस पर विचार करें। आप इससे अपने लिए नरक के द्वार भी खोल सकते हैं
और मोक्षमार्ग के द्वार भी खोल सकते हैं।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें