इस दुनिया में ‘धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष’, ये चार पुरुषार्थ माने जाते हैं। चारों पुरुषार्थों को उपादेय मानने वाले
समझते हैं कि हर व्यक्ति को अपने-अपने उचित समय में चारों पुरुषार्थों का सेवन
करना चाहिए, इनमें से किसी पुरुषार्थ की
उपेक्षा नहीं करनी चाहिए,
क्योंकि चारों
पुरुषार्थों का सेवन ही दुःख-मुक्ति और सुख-प्राप्ति का मार्ग है।
अनंतज्ञान के योग से सुख-दुःख के
वास्तविक निदान और सच्चे सुख के ज्ञाता ज्ञानी पुरुष फरमाते हैं कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चार
पुरुषार्थ जगत में माने जाते हैं, किन्तु अर्थ और काम तो
नाम के ही पुरुषार्थ हैं। परमार्थ से तो ये दोनों अनर्थभूत ही हैं। अर्थभूत
पुरुषार्थ एक मात्र मोक्ष ही है और संयम आदि दस प्रकार का धर्म उसका माध्यम है। इस
दृष्टि से देखा जाए तो धर्म ही सच्चा पुरुषार्थ है, क्योंकि
धर्म पुरुषार्थ की साधना में मोक्ष पुरुषार्थ की साधना आ जाती है। धर्म की पूर्ण
आराधना के फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। इसे ऐसा भी कहा जा सकता है कि
मोक्ष साध्य है और धर्म उसका साधन। मोक्ष का सुख ही सच्चा सुख है। वह सुख, दुःख मात्र से रहित, सम्पूर्ण
तथा अक्षय अर्थात् कभी नष्ट नहीं होने वाला है।
जगत के जीवों को ऐसा ही सुख चाहिए, क्योंकि किसी को ज्यादा सुख में थोडा भी दुःख आ जाए
तो वह पसन्द नहीं आता है। जब तक पूर्ण सुख न मिले, तब
तक सुख पाने की इच्छा बनी रहती है। अपूर्ण सुख भी दुःखरूप बन जाता है। अतः हर
व्यक्ति चाहता है कि मेरा सुख स्थाई बना रहे। अज्ञानता के कारण भले ही संसारी जीव
स्वयं को पसन्द सुख के यथार्थ स्वरूप को अभिव्यक्त न कर सके तो भी उनकी मनोदशा समझ
ली जाए तो संक्षेप में कह सकते हैं कि उन्हें नाम मात्र के भी दुःख से रहित
सम्पूर्ण और स्थाई सुख चाहिए। जहां ऐसे सुख की बात आती है, वहां
अपने को ज्ञानी मानकर दुनिया को सच्चे सुख का मार्ग बतलाने का दावा करने वाले
अपूर्ण ज्ञानी मोहित हो जाते हैं, परन्तु जो अनंतज्ञानी
सर्वज्ञ परमात्मा हैं, वे तो सबकुछ जानते हैं। वे फरमाते
हैं कि ‘जगत के जीवों को जो दुःखमात्र से
रहित, सम्पूर्ण और शाश्वत सुख चाहिए, वह दुनिया में तो कहीं नहीं मिल सकता है, ऐसा सुख तो सिर्फ मोक्ष में है।’
संसारी लोग पौद्गलिक पदार्थों के
योग में सुख की कल्पना कर रहे हैं, परन्तु पौद्गलिक योग से
सर्वथा मुक्त बनने पर ही ऐसे वास्तविक सुख को पा सकते हैं। अपनी आत्मा जड कर्म के
योग से सर्वथा मुक्त बनकर मोक्ष प्राप्त करेगी, तभी
दुःख मात्र से रहित, सम्पूर्ण व स्थाई सुख पा सकती है।
इसी कारण ज्ञानी भगवंत मोक्ष की साधना को ही प्रधानता देते हैं।
धर्म के सेवन बिना मोक्ष की
प्राप्ति अशक्य है, इसीलिए ज्ञानी फरमाते हैं कि ‘अर्थ और काम ये नाम के ही पुरुषार्थ हैं’। मोक्ष ही अर्थभूत है और संयम आदि दसविध धर्म उसका
माध्यम हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि मोक्ष के लिए ही धर्म का सेवन करना चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें