‘जर, जमीन और जोरू, ये तीनों कजिया के छोरू’। जर यानी धनमाल, जमीन यानी भूमि, मकान आदि और जोरू यानी स्त्री; ये तीनों झगडे के कारण हैं। इनके
संसर्ग में रहकर शान्ति की बात करना निरर्थक है। जर, जमीन और जोरू का मोह शान्त होना बहुत मुश्किल होता
है। ये तीनों भयंकर विषय-कषाय के कारण हैं और दुर्गति में ले जाने वाले हैं, लेकिन जमानावादी इन्हीं में मस्त
और मशगूल रहते हैं। संसार में मस्त रहने वाली आत्माओं को दुर्गति में ले जाने वाले
कार्यों से भी आनन्द होता है। इन तीनों पौद्गलिक वस्तुओं की ममता छुडवाने के लिए
तीर्थ की स्थापना है।
लेकिन, पौद्गलिक लालसाओं में सडने वाली आत्माएं वास्तविक भक्ति कर ही नहीं सकती। उन
आत्माओं को यह ज्ञान ही नहीं होता कि भक्ति का उत्कर्ष किस बात में है और अपकर्ष
किस बात में है? संसार
में मग्न, भोगों में आसक्त और
एकान्त विषयों के अधीन बनी आत्माओं को यह ध्यान ही नहीं रहता। अतः यदि धर्मात्मा
बनना चाहो तो अधर्म को खोटा मानना सीखो। धर्मपरायण होना हो तो पाप को पाप समझो।
अधर्म का त्याग किए बिना हृदय में धर्म नहीं आ सकता। जब तक आप पाप को पाप नहीं
मानेंगे, तब तक पुण्य कार्य के
प्रति आपके हृदय में सच्चा प्रेम नहीं उत्पन्न होगा। यदि पाप को पाप मानते हो तो
संसार की कोई भी वस्तु आपको व्याकुल नहीं कर सकेगी।
आज तो ग्राहक को प्रसन्न करने के लिए धर्म की सौगन्ध
भी खाई जाती है, यह
भी कह दिया जाता है कि ‘भगवान
को मध्य रखकर सत्य बात कह रहा हूं’। बताइए यह धर्म का सम्मान है या अपमान? ऐसे में धर्म की प्राप्ति कैसे हो सकती है भला? अनीति करते रहना और कहना कि ‘समय के अनुसार आवश्यक है’। गलत को समय के नाम पर सत्य बताना
क्या ठीक है? साधु
लोग यदि अधिक कहेंगे तो वे कह देंगे कि ‘ये लोग तो उपाश्रय में रहते हैं, इन्हें बाजार की हालत का क्या पता? निर्वाह का धन लाना कहां से?’ धर्म
कोई बाजारू वस्तु है जो धन के लिए धर्म को बाजार में घसीटा जाए? गलत हथकण्डों से धन प्राप्त करने
के लिए धर्म का सहारा लिया जाए?
मैं कहता हूं कि जब तक इस प्रकार की मान्यता है, तब तक धर्म हृदय में प्रविष्ट नहीं
होगा। धर्म को बाजार में न घसीटो। आपकी यह मान्यता दृढ होनी चाहिए कि ‘कम धन की प्राप्ति होगी तो कम ही
सही, परन्तु पाप तो नहीं
होगा, उसके लिए धर्म की आड तो
नहीं ही ली जाएगी।’ यह
मान्यता यदि आपके हृदय में दृढ हो जाए तो काम हो जाए। धर्मनिष्ठ मनुष्यों के हृदय
में पाप पर सद्भाव तो होना ही नहीं चाहिए।-सूरिरामचन्द्र
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