शनिवार, 2 जून 2012

रत्नत्रयी की आराधना में उद्यमशील बनें

श्री जैन शासन तो चाहता है कि, समस्त जगत् भोग का त्यागी बनकर रत्नत्रयी की आराधना में जुट जाए, कोई भी आत्मा भोग का भोक्ता बनने का पाप न करे और सभी सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र की आराधना में उद्यमशील बने।
इस शासन के स्थापक, पालक और प्रचारक पुण्य पुरुषों की यही कामना रही हो, इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं है। परन्तु वे पुण्य पुरुष जगत् की स्थिति को अच्छी तरह जानते थे, इस कारण उन पुण्य पुरुषों ने, ‘जो भी आत्म कल्याण चाहता हो, उसे भोग का सर्वथा त्याग कर एकमात्र रत्नत्रयी की आराधना करनी चाहिए और जो कोई भी भोग का सर्वथा त्याग न कर रत्नत्रयी की आराधना में उद्यमशील नहीं बनेगा, वह अधर्मी ही है’, ऐसा प्रतिपादन नहीं किया।
यदि वे ऐसा प्रतिपादन करते तो संभवतया उसका कटु परिणाम यही आता कि उन तारकों की आज्ञा का अनुसरण करने की भावना वाले भी उन तारकों की आज्ञा का अनुसरण नहीं कर सकते। जीव मात्र के कल्याणकामी उन पुण्य पुरुषों ने यही उपदेश दिया कि जिनसे शक्य हो, उन्हें तो भोग का सर्वथा त्याग कर एक मात्र रत्नत्रयी की आराधना में ही उद्यमशील बनना चाहिए, परन्तु जिनके लिए भोग का सर्वथा त्याग और एकमात्र रत्नत्रयी की आराधना शक्य न हो उन आत्माओं को, भोग के सर्वथा त्याग और एकमात्र रत्नत्रयी की आराधना के ध्येय को सुनिश्चित कर देना चाहिए और जितने अंश में शक्य हो, उतने अंश में भोगों का त्याग करना चाहिए और रत्नत्रयी की आराधना करनी चाहिए। जितने अंश में मनुष्य जन्म को भोग का भाजन बनाना पडे, उतने अंश में हृदय में दुःख होना चाहिए और बराबर यह महसूस होना चाहिए कि कब मैं भोगों का सर्वथा त्यागी बनकर एकमात्र रत्नत्रयी की आराधना में उद्यमशील बनूंगा। ऐसी भावना रखकर उस सामर्थ्य को पाने के लिए प्रयत्नशील बनना चाहिए।
भूतकाल में कुछ न कुछ धर्म की आराधना की और उस आराधना से पुण्य का बंध हुआ, उस पुण्य के प्रभाव से ही यह मानव जन्म मिला, आर्यदेश और जैन कुल मिला, देव-गुरु-धर्म का संयोग मिला, ऋद्धि-सिद्धि मिली। इस प्रकार धर्म के ही प्रभाव से प्राप्त ऋद्धि-सिद्धि से आप फिर भौतिकता की चकाचौंध में खो कर, संसार की ओर आकृष्ट होकर भटक जाएं, इस मानव जीवन के लक्ष्य को भूल जाएं और दुर्गति की ओर प्रयाण करते हों तो आपकी इस स्थिति को देखकर हमें मनोमन दुःख होता है और इसी कारण अवसर देखकर आप लोग दुर्गति की तैयारी से रुको’, यह उपदेश देने का मन हो जाता है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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