जीवन एक धधकते चूल्हे की तरह होता है, बिना पारिवारिक नियंत्रण, बिना संस्कार, बिना पिता के साये के अक्सर बच्चे उसमें अपने हाथ जला बैठते हैं। धधकती आग
से बच्चों को बचाने वाला पिता क्या स्वयं आज उस आग से सुरक्षित है, जिसे बडे होने
के बाद बेटों और बहुओं की स्वार्थी और तुच्छ मनोवृत्तियों ने जलाया है?
विशाल वृक्ष के साये में जिस तरह हर मौसम की मार से महफूज नन्हें पौधे बेफिक्री
से झूमते हैं और हवा-पानी पाकर बढते जाते हैं; उसी तरह जिंदगी के संघर्षों की तीखी धूप से राहत देता है पिता का साया। मुश्किल
घडी में बेटे भले ही पिता को अकेला छोड दें, लेकिन पिता बच्चों को मुसीबत के हर पल में थामे रहते हैं। मां अपने बच्चों
का अस्तित्व बनाती है, लेकिन उसमें शक्ति और ऊर्जा का संचार एक पिता करता है। जीवन के प्रति जिंदादिली, समाज के प्रति
अपने उसूल, कर्त्तव्यपरायणता, आत्मविश्वास, ईश्वर को स्व में ढूंढने की शक्ति और व्यवहार में सादगी की सीख; मार्गदर्शक के
रूप में मां से भी अधिक करीब जीवन में कोई रहता है तो वह पिता या पितामह रहता है।
मुश्किलों में भी पिता का धैर्य, सहनशक्ति और आत्मविश्वास, पुरुषार्थ की निरंतरता व निराशा की कडवी यादों से निकलकर आशाओं को साकार करने
का रास्ता दिखाते हैं; उन्हें याद करने के लिए, उन्हें प्रणाम करने के लिए, उनके चेहरे पर सुकून भरी मुस्कराहट लाने के लिए इस दौडती-भागती, लडती-झगडती दुनिया
के नियामकों के पास देने के लिए कुछ नहीं है, यह कितनी बडी विडम्बना है?
हमारे यहां शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि व्यक्ति माता-पिता और गुरु इन
तीन के ऋणों से कभी उऋण नहीं हो सकता, लेकिन ये तीनों ही वर्तमान समय में किस दौर से गुजर रहे हैं, इन तीनों की
आज कैसी मनोदशा है, अपना स्वार्थ पूरा होने के बाद किस प्रकार इन्हें हाशिए पर छोड दिया जाता है; लेकिन धन्य हैं
ये कि वृद्धावस्था में, असहाय और उपेक्षित हालात में भी इनके भीतर से दर्द की जो आह निकलती है, उसमें हाय नहीं
होती, अपने बच्चों के प्रति बददुआ नहीं होती। बावजूद इसके हाय और बददुआ लग जाती है।
यह एक अनोखा मनोविज्ञान है।
बिखरता परिवार
: सिमटता परिवार
“सुख बढ जाता, दुःख घट जाता, जब वह है बंट जाता।” हमारे यहां संयुक्त परिवार की अवधारणा के पीछे जो सबसे मुख्य बात थी, वह यही है कि
सुख-दुःख आपस में बंट जाते थे, खुशियां बढ जाती थीं और दुःख का समय कब निकल जाता था, पता ही नहीं चलता था।
बच्चों को संस्कारों का एक वातावरण मिलता था, माता-पिता से अधिक दादा-दादी की गोद मिलती थी, दादी और मां की मीठी लोरियां तनाव से मुक्त कर देती थीं, वहीं दादाजी
की कहानियां जीवन में संस्कारों और प्रेरणा का संचार करती थी।
जीवन की आपाधापी, स्वच्छंदता, भौतिकता की चकाचौंध, तुच्छ स्वार्थों की अंधी दौड और मैं व मेरापन ने संयुक्त परिवारों को बिखेर
दिया। बिखरने की इस प्रक्रिया में हम इतने उतावले हो गए कि हमने अपना आपा खो दिया, हमारा भाषा-विवेक
नष्ट हो गया, एक-दूसरे के प्रति आदर और समर्पण का भाव इस प्रक्रिया में तिरोहित हो गया, परिणाम स्वरूप
अब संयुक्त परिवार या अलग हुए परिवारों में भी सामंजस्य व स्नेह कहीं-कहीं देखने को
मिलता है, हजारों में एक। उन्हें भी स्वार्थों के ग्रहण लगे हुए हैं। भडकाने, भरमाने और तोडने
वालों की कमी नहीं है। अब एकल परिवार हो गए हैं, ऐसे में मां-बाप कहां रहें, किसके साथ रहें, कौन उनकी जिम्मेदारी उठाए, मां-बाप के पास कितनी सम्पत्ति है या वे कितने कमाऊ हैं, बच्चों की देखभाल
और घर के कामकाज में वे कितना हाथ बंटा सकते हैं? ये सब यक्ष प्रश्न हैं, जिनके संतोषप्रद उत्तर पर निर्भर करेगा कि वे कितने समय किस बच्चे के पास रह
पाएंगे और कब उनकी उपेक्षा व तिरस्कार की शुरुआत होगी। बेटा इकलौता है, तब भी साथ निभाने
की गणित तो वही है।
मानसिक विकृतियों
और आक्रामकता का दौर
परिवारों का
सिमटना और संकुचित होना जारी है। अब मैं और मेरे बच्चे भी मुट्ठी में से रेत की भांति
फिसलते जा रहे हैं। ऐसे परिवारों की संख्या बढती जा रही है, जहां मां-बाप
अकेले छूट गए हैं। बेटी की शादी होकर वह ससुराल चली गई और बेटा-बहू कहीं बाहर दूसरे
शहर में कमाने गए और वहीं बस गए। बूढे मां-बाप की सुध लेने वाला, बीमारी में उनकी
देखभाल करने वाला कोई नहीं, उनका समय नहीं कटता, निराशा-दुःख-घुटन और अवसाद का सैलाब उमड रहा है समाज में। कई लोग वृद्धाश्रमों
की राह देख रहे हैं।
अब एकल परिवारों में संस्कारों का सम्प्रेषण भी ठप्प हो गया है। दादा-दादी
साथ नहीं हैं, मां-बाप नौकरी और पैसा कमाने में व्यस्त हैं, बच्चों को स्कूल, कोचिंग और बचे हुए समय में टीवी, इंटरनेट या फेसबुक पर चेटिंग करने, प्रतिस्पर्द्धा की तैयारियों और पीअर ग्रुप (दोस्तों का समूह) से फुर्सत नहीं
है। उनकी गति और मनमर्जी में आने वाला थोडा-सा अवरोध अथवा मानसिक दबाव उन्हें कई प्रकार
के मनोविकारों का शिकार बना देता है, जिसके कारण वे आक्रामक हो जाते हैं। आज की पीढी में बहुत तेजी से मनोविकृतियां
बढती जा रही हैं। ऐसे में यह चिंतन करने की जरूरत है कि धर्म और संस्कारों से दूरी, माता-पिता-गुरु
की उपेक्षा, स्व-केंद्रित सोच, मैं और मेरापन, स्वार्थांधता, पारिवारिक विघटन; कहीं इन सब की कीमत तो नहीं चुका रहे हैं हम?
युवावस्था में दोस्तों की बातें ज्यादा भरोसे और प्रेरणादायी लगती हैं, पिता की बातें
कडवी लगती है। शादी होने के बाद पत्नी ज्यादा निकट हो जाती है, मां-बाप आँखों
की किरकिरी बन जाते हैं, वे खटकने लगते हैं और घर टूट जाते हैं। अक्ल तब आती है, जब उनके बच्चे
भी उनके साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं अथवा वे दोस्तों से धोखा खाते हैं, लेकिन तब तक
लम्बा समय गुजर जाता है जो लौटकर नहीं आता।
समझें माता-पिता
की महत्ता को
हम माता-पिता की महत्ता को समझें, उनकी उपेक्षा करने की बजाय उनका आदर करें, उनका आशीर्वाद और मार्गदर्शन प्राप्त करें। “जनरेशन गेप” की बात सही नहीं
है। आज समय बदला है, हालात बदले हैं, प्रतिस्पर्द्धा बढी है, लेकिन यह सब कब नहीं हुआ? समय तो अनवरत रूप से बदलता रहता है, हालात बदलते रहते हैं, लेकिन इंसान, इंसानियत, जजबात, भावनाएं, संवेदनाएं? यह सब बदलेगा तो हम विनाश की ओर ही बढेंगे। पिता के अनुभव और संस्कारों के
साथ हमें अपनी सोच और आधुनिकता का सामंजस्य बिठाना चाहिए। यह जिम्मेदारी पुत्रों की
है, यही उनकी समझदारी और प्रगति का मापदंड भी कि वे किस प्रकार सामंजस्य बिठाकर
अपने पिता का साया, उनका हाथ सदा अपने सर पर बनाए रख सकते हैं।
पिता जो अपनी सारी खुशियां अपने बच्चों पर निसार कर देता है, अपना दुःख, अपना संघर्ष, सबकुछ छुपाकर
बच्चों के सामने मुस्करा देता है, बच्चों पर कभी दुःख की छाँया भी न पडे इसके लिए पिता किसी भी हद से गुजर जाता
है, इसीलिए पिता को परमेश्वर की संज्ञा दी गई है। ऐसे परमेश्वर रूप पिता की उपेक्षा
दुर्भाग्य को निमंत्रण है। अतः इससे बचें, पिता को नियमित प्रणाम करें।
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