शनिवार, 9 जून 2012

भव-भ्रमण का रोग

हमारे अरिहंत भगवान् धन्वंतरी वैद्य हैं। मन्दिर अस्पताल हैं। साधु कम्पाउण्डर हैं। अरिहंत भगवान्(धन्वंतरी) द्वारा लिखी गई दवा ही साधु दे सकते हैं। अपने घर की या आप मांगें वह दवा वे नहीं दे सकते।
आप मन्दिर-उपाश्रय को निरोग बनने का स्थान मानकर यहां आते हैं क्या? यहां आने के पहले स्वयं को रोगी मानना, निरोग होने का संकल्प करना और समय पर नियमानुसार औषधि लेने के साथ ही पथ्य-परहेज पालने की बात को स्वीकार करना आप के लिए जरूरी होना चाहिए।
पहले यह बात निश्चित करिए कि हम रोगी हैं।चार गतियों में भटकने का महारोग हमें लागू हो गया है। मन्दिर-उपाश्रय में आने पर भी अभी रोग का असर कम नहीं हुआ है। इसका कारण यह है कि हमने अभी रोग को पहचाना ही नहीं है। शरीर में उठा हुआ एक छोटा-सा रोग भी आपको चौबीसों घंटे याद आता है, जबकि भव-भ्रमण का यह घातक रोग आपको मन्दिर-उपाश्रय में भी याद आता है या नहीं?यह एक प्रश्न है।
थोडे काल तक सुख देने वाले और बहुत समय तक दुःख प्रदान करने वाले ये कामभोग अनर्थों की खान हैं। जीव विषयों की आसक्ति में इतना गृद्ध हो जाता है कि बिल्कुल भान भूल जाता है। वस्तुस्थिति तो यह है कि जितना विषयों को तृप्त करना चाहो, उतने ही ये ज्यादा प्रबल होते हैं। जैसे जलती आग में ईंधन डालो तो वह और ज्यादा भडकती है, बुझती नहीं है, उसी प्रकार विषयों को तृप्त करने के लिए हम जितने भी पदार्थों का सेवन करें, वे विषय शान्त होने के स्थान पर उतने ही अधिक प्रबल बनते हैं। विषयों की आसक्ति कैसे-कैसे जघन्य कृत्य करा देती है। उस वक्त तृष्णा की महाज्वाला में धधकता हुआ मन विवेकच्युत हो जाता है और उचित-अनुचित का भेद भूल कर महापाप कर बैठता है। ये विषय ही कर्म बंध और भव-भ्रमण का कारण हैं।
मैं अनादि का रोगी हूं, संसार के विषय मुझे लगा हुआ घातक रोग है’, इतना रट लो। तब इस रोग को दूर करने हेतु ही देव-गुरु-धर्म के पास आने की शुरूआत होगी।
संसार के इस रोग की दवा मनुष्य जन्म में ही मिलती है। सुख को फेंक देना और दुःख को अपनाना यही औषधि है। यह औषधि ही धर्म है। इस धर्म को मनमाने ढंग से करने वालों ने इस औषधि के रस-कस और शक्ति को नष्ट कर डाला है। अतःएव अपनी मनमानी को मारकर उस औषधि का सेवन करना चाहिए।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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