रविवार, 10 जून 2012

साधु-सेवा किसलिए?


साधुओं को अन्न-पानी अथवा वस्त्र आदि देने से मेरी आत्मा का कल्याण होगा, निस्तार होगा’, ऐसी बुद्धि श्री जिनाज्ञा के अनुसार विचरण करने वाले साधुओं को अन्न, पानी अथवा वस्त्रादि बहराते समय होनी चाहिए। साधु संयमी हैं। रत्नत्रयी के आराधक हैं। भगवान की आज्ञा के अनुसार महाव्रतों का पालन करने वाले हैं और संयम पालन सुखपूर्वक कर सकें, इसीलिए ही अन्न-पानी आदि लेते हैं। ऐसे महात्माओं के उपयोग में मेरी कोई वस्तु आए, ऐसा सदुपयोग हो तो ही मुझे प्राप्त हुई वस्तु की, सामग्री की सफलता है।यह भावना साधुओं की सेवा करने वालों के अंतर हृदय में होनी चाहिए।

ऐसी उत्कृष्ट भावना से, रंक, कुछ भी पास में न हो तो रोटी का टुकडा देकर भी स्वयं का कल्याण कर सकता है। जबकि मिष्ठान आदि बहोरावे, परन्तु अपने को साधुओं के ऊपर उपकार करने वाला मानकर और अपने से साधुओं को तुच्छ मानता हो, स्वयं से साधुओं को दबा हुआ मानता हो, ‘साधुओं को हम ही आहार-पानी देकर जीवित रखते हैं, इसीलिए साधुओं को हमारी आज्ञा माननी चाहिए’, ऐसी भावना वाले जो हों, वे ऐसी पाप भावना के योग से तिरते नहीं, अपितु डूबते हैं। संयम का महत्त्व उनके हृदय में नहीं है, उनके हृदय में संयम के प्रति आदर भाव नहीं है, संयम को उन्होंने जाना ही नहीं है, अन्यथा ऐसी दुष्टवृत्ति, आत्मघाती विचार आता ही नहीं।

साधुओं को बहोराने वाले तो अपने संसार-वास की निन्दा करते हैं और मानते हैं कि ये महासत्त्वशाली हैं और मैं पामर हूं।बहोराते समय उनके मन में यह भाव होना चाहिए कि ऐसी संयमी आत्माओं की भक्ति करते-करते मेरे कर्मों का आवरण दूर हो और सम्यग्चारित्र की आराधना करने योग्य सामग्री मुझे प्राप्त हो।

देव, गुरु के ऊपर उपकार करने की बातें करने या सोचने वाले पहले स्वयं पर तो उपकार करलें और सोचें कि शुभोदय से न जाने कहां-कहां भटकते हुए यहां पहुंचे हैं, अब फिर कहीं यहां से भटक गए तो किस-किस गति में लटकना-अटकना और भटकना पडेगा, भव निस्तार का अवसर चूक जाएगा। ऐसा विचार कर उन्हें अपने आत्म-कल्याण का चिंतन करना चाहिए।

सुदेव या सुगुरु भक्ति के भूखे नहीं होते। सुदेव और सुगुरु भक्ति से प्रसन्न होने वाले अथवा उसकी अधीनता स्वीकार करने वाले नहीं होते हैं। अन्न-पानी देने वालों के सेवक बनें, वे दूसरे। श्री जैन शासन के वे गुरु नहीं। अन्न देने वालों की ही आज्ञा उठानी होती तो यह वेश पहनने की जरूरत ही नहीं थी। जो श्री जैन शासन के साधु का वेश पहिनकर अन्न-पानी देने वालों की चापलूसी करे, खुशामद करे, जिनमें दासवृत्ति हो, वे साधुवेश में रह कर जैन शासन की अपभ्राजना कराने वाले हैं। ऐसे पामर श्री जैन शासन के साधु नहीं। यहां तो अन्न-पानी मिले तो संयमवृद्धि और नहीं मिले तो तपोवृद्धि, यही भावना होती है।-आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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