शुक्रवार, 8 जून 2012

मरण से नहीं,जन्म से डरो

एक दिन सबको मरना है। जन्म पाने वाला मरता ही है,यह सुनिश्चित बात है। जब मरण आना ही है और वह भी अपनी जानकारी के बगैर अचानक, तो फिर सावचेत रहने में बुद्धिमत्ता या लापरवाह रहने में बुद्धिमत्ता? ज्ञानियों ने मरण से डरने की मनाई की है। ज्ञानीगण तो मरण से डरने वालों को कहते हैं कि मृत्यु से तुम डरो या न डरो, यह तो आनेवाली ही है। कारण कि जन्म के बाद मृत्यु निश्चित है। मरण नहीं चाहिए तो जन्म नहीं हो, ऐसा प्रयत्न करो, क्योंकि जिसका जन्म नहीं, उसकी मृत्यु नहीं। इस रीति से कहकर, मरण से नहीं डरते हुए जन्म से डरने का ज्ञानियों ने सूचित किया है और शाश्वत काल के लिए जन्म से छुटकारा मिल जाए, इस प्रकार का इस जीवन में प्रयत्न करने की प्रेरणा की है।
यहां यह बात स्पष्ट ध्यान में रखने की है कि मृत्यु से निर्लज्ज होकर नहीं डरना, यह तो उल्टा नुकसान कारक है। मृत्यु से बेफिक्र बनकर स्वयं के जीवन को पापमय बना देना, यह तो एकान्त रूप से अनर्थ कारक है। मृत्यु का डर निकालने का कहने वालों ने जन्म से डरने का और जन्म से डरकर पुनः-पुनः जन्म न करना पडे, ऐसा सुप्रयत्न करने का साथ में फरमाया है। इससे स्पष्ट है कि मृत्यु से डरकर मृत्यु को दूर भगाने का प्रयत्न करना, इसका कोई अर्थ नहीं। मृत्यु से डरे बिना जन्म न करना पडे, ऐसा प्रयत्न करना, यही हितकारक है। जो आत्मा इस प्रयत्न में जीवन व्यतीत करता है, उसको पश्चाताप नहीं करना पडता। किसी भी क्षण में मौत आ जाए तो भी सच्चे धर्मात्मा व्यथित नहीं रहते हैं, किन्तु यह दशा आना आसान नहीं है।
आप जीवन को एकदम निष्पाप न बना सको, यह संभव है। किन्तु, जीवन को निष्पाप बनाने के पहले कदम के रूप में पापभीरुता तो अपनाओ। सबसे पहले यह काम करो कि आत्मा को पाप से डरने वाला बनाओ। पाप से डरने वाला तीव्र बंध नहीं करता है। पाप का विचार आने पर भी उसको दुःख होता है। पाप करना उसे अच्छा नहीं लगता है। इसलिए बहुत से पाप तो इससे दूर ही रहते हैं। जो थोडे पाप वह करता है, वह भी मन में दुःख, ग्लानि और पश्चाताप के साथ करता है अथवा तो दूसरों की तरह रसपूर्वक नहीं करता है। इसलिए उसको पापकर्म का बंध, वैसा दृढ नहीं ही होता है। जीवन में सच्ची पापभीरुता आ जाए तो निष्पाप जीवन बहुत दूर नहीं रहता है। ऐसी आत्मा जिसमें थोडा-बहुत पाप का डर है, उसमें अवसर-अवसर पर शुभ भावना आनी आसान है। जीवन के अंतिम समय में दुनियादारी के राग-द्वेष जिसको व्यथित करते हैं, वह दुर्गति में ही जाता है। अन्त समय की दशा अच्छी होती है तो गति अच्छी ही होती है। इसलिए अन्तिम समय में आत्मा दुनियादारी की ममता छोडे और एकमात्र देव, गुरु, धर्म का शरण स्वीकार करे। इस दशा को लाने के लिए अभी से आत्मा को भावित करना चाहिए। -आचार्य श्री विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा

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